द्रव्यगुण विज्ञान का परिचय - BAMS नोट्स
आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में, द्रव्यगुण विज्ञान (Dravyaguna Vigyana) एक मूलभूत और अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है। BAMS द्वितीय वर्ष के छात्रों के लिए, यह विषय चिकित्सा की नींव रखता है। इसे आधुनिक विज्ञान में Pharmacology (औषध विज्ञान) और Materia Medica (भेषज संग्रह) के समकक्ष माना जा सकता है।
सरल शब्दों में, द्रव्यगुण विज्ञान वह शास्त्र है जो हमें 'द्रव्य' (यानी औषधीय पौधे, खनिज, या जांतव पदार्थ) के 'गुण' (Properties) और 'कर्म' (Action) का ज्ञान कराता है। यह हमें सिखाता है कि कोई औषधि शरीर में जाकर क्या, क्यों और कैसे काम करती है।
इस लेख में, हम BAMS पाठ्यक्रम (NCISM के अनुसार) के आधार पर द्रव्यगुण विज्ञान के मूल सिद्धांतों, इसके 7 पदार्थों (Padarthas), आयुर्वेद में इसके महत्व और परीक्षा के लिए महत्वपूर्ण श्लोकों का अध्ययन करेंगे।
अध्याय सार (Chapter in Brief)
- द्रव्यगुण विज्ञान: यह आयुर्वेद का 'फार्माकोलॉजी' है, जो औषधीय द्रव्यों का अध्ययन करता है।
- आयुर्वेद का आधार: हेतु (कारण), लिंग (लक्षण) और औषध (द्रव्य) के ज्ञान पर आयुर्वेद टिका है, जिसमें औषध का ज्ञान द्रव्यगुण से मिलता है।
- मुख्य सिद्धांत: आयुर्वेद में किसी द्रव्य का कर्म (Action) उसके 7 पदार्थों पर आधारित होता है।
- सप्त पदार्थ: ये 7 पदार्थ हैं - द्रव्य, गुण, रस, वीर्य, विपाक, प्रभाव, और कर्म।
- रस पंचक: पहले 5 पदार्थों (रस, गुण, वीर्य, विपाक, प्रभाव) को सम्मिलित रूप से 'रस पंचक' भी कहा जाता है, जो कर्म का निर्धारण करते हैं।
- आधुनिक सहसंबंध: इसे आधुनिक फार्माकोकाइनेटिक्स (Pharmacokinetics) और फार्माकोडायनामिक्स (Pharmacodynamics) से समझा जा सकता है।
द्रव्यगुण विज्ञान की परिभाषा
आचार्य प्रियव्रत शर्मा जी द्वारा द्रव्यगुण विज्ञान की सबसे व्यावहारिक परिभाषा दी गई है, जो इस शास्त्र के पूरे उद्देश्य को स्पष्ट करती है:
द्रव्याणां नामरूपाणि गुणकर्माणि सर्वशः।
            प्रयोगं चानुयुङ्क्ते यद् द्रव्यगुणं तदुच्यते॥
व्याख्या (Commentary)
जिस शास्त्र में द्रव्यों के नाम (Nomenclature), रूप (Morphology), गुण (Properties), कर्म (Actions) और प्रयोग (Therapeutic uses) का सम्पूर्ण वर्णन मिलता है, उसे 'द्रव्यगुण शास्त्र' कहते हैं।
यह श्लोक एक वैद्य के लिए 5 महत्वपूर्ण बातों को रेखांकित करता है:
- नाम (नामज्ञान): औषधि को उसके सही नाम (संस्कृत, लैटिन, हिंदी, क्षेत्रीय नाम) से पहचानना। इसमें पर्यायों (synonyms) का ज्ञान भी शामिल है।
- रूप (रूपज्ञान): औषधि के स्वरूप (पेड़, पत्ती, जड़, पुष्प, फल आदि) को पहचानना (Botanical Identification/Pharmacognosy)। इसमें उसके प्राप्ति स्थान (Habitat) और संग्रहण विधि (Collection method) का ज्ञान भी आता है।
- गुण (गुणज्ञान): औषधि के भौतिक (गुर्वादि) और रासायनिक गुण, विशेषकर रस, वीर्य, विपाक का ज्ञान।
- कर्म (कर्मज्ञान): औषधि का शरीर (दोष, धातु, मल) पर होने वाला प्रभाव (Pharmacological Action)। जैसे - दीपन, पाचन, ज्वरघ्न, रसायन आदि।
- प्रयोग (प्रयोगज्ञान): औषधि को किस रोग (Amayika Prayoga), किस अवस्था, किस रोगी (प्रकृति, वय, बल), किस मात्रा में, किस अनुपान के साथ और कैसे देना है (Therapeutic Application)।
इन पांचों का सम्यक् ज्ञान ही द्रव्यगुण का सम्पूर्ण ज्ञान है और सफल चिकित्सा का आधार है।
आयुर्वेद में द्रव्यगुण का महत्व
आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र 'त्रिसूत्र' (Trisutra) या 'त्रिस्कन्ध' (Triskandha) पर आधारित है - हेतु, लिंग, और औषध। इनमें 'औषध' का ज्ञान मुख्यतः द्रव्यगुण विज्ञान से ही प्राप्त होता है।
श्लोक (चरक संहिता - सूत्रस्थान अध्याय 1)
हेतुर्लिङ्गंमौषधज्ञानं स्वस्थातुरपरायणम्।
            त्रिसूत्रं शाश्वतं पुण्यं बुबुधे यं पितामहः॥ (च.सू. १/२४)
व्याख्या:
ब्रह्मा जी ने जिस शाश्वत और पुण्य त्रिसूत्र आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया, वह **हेतु** (रोग का कारण), **लिंग** (रोग के लक्षण) और **औषध** (रोग की चिकित्सा/द्रव्य) के ज्ञान पर आधारित है, तथा स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा (स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं) और रोगी के रोग का निवारण (आतुरस्य विकार प्रशमनं) ही इसका प्रयोजन है।
इस त्रिसूत्र में 'औषध ज्ञान' का अर्थ है द्रव्यों का ज्ञान, उनके गुणों का ज्ञान, उनके कर्मों का ज्ञान और उनके प्रयोग का ज्ञान - जो कि द्रव्यगुण विज्ञान का ही विषय है। बिना द्रव्यगुण के ज्ञान के चिकित्सा संभव नहीं है।
श्लोक (चरक संहिता - सूत्रस्थान अध्याय 1)
कार्यं धातुसाम्यमिह चोच्यते।
            धातुसाम्यक्रिया चोक्ता तन्त्रस्यास्य प्रयोजनम्॥ (च.सू. १/५३)
व्याख्या:
इस शास्त्र (आयुर्वेद) का कार्य (या उद्देश्य) धातुओं की साम्यावस्था (Equilibrium of Dhatus/homeostasis) स्थापित करना है, और धातुओं को साम्यावस्था में लाने वाली क्रिया (चिकित्सा) ही इस तंत्र का प्रयोजन है।
यह धातुसाम्य बिना औषध द्रव्यों के प्रयोग के संभव नहीं है। कौन सा द्रव्य विषम हुए दोषों को शांत करेगा (शमन) या बढ़े हुए दोषों को शरीर से बाहर निकालेगा (शोधन), इसका निर्णय द्रव्य के गुण-कर्म के आधार पर ही होता है, जिसका ज्ञान द्रव्यगुण विज्ञान कराता है।
अतः, द्रव्यगुण विज्ञान आयुर्वेद चिकित्सा का मेरुदंड (backbone) है। इसके बिना न तो रोग का निदान ठीक से हो सकता है (क्योंकि कई बार औषध द्रव्यों के गुण-कर्म से भी रोग की पहचान होती है) और न ही चिकित्सा संभव है।
द्रव्यगुण के सप्त पदार्थ (7 Padarthas)
द्रव्यगुण विज्ञान का पूरा सिद्धांत इन 7 पदार्थों पर टिका है। यही 7 स्तंभ हैं जो बताते हैं कि कोई दवा कैसे काम करेगी। ये हैं - द्रव्य, गुण, रस, वीर्य, विपाक, प्रभाव, और कर्म।
(नोट: कुछ आचार्यों ने 6 पदार्थ माने हैं, कर्म को अलग न मानते हुए, लेकिन 7 पदार्थों का सिद्धांत सबसे अधिक प्रचलित है।)
1. द्रव्य (Dravya - The Substance)
द्रव्य वह मुख्य, अधिष्ठानभूत (substratum) पदार्थ है जिसमें अन्य सभी 6 पदार्थ (गुण, रस, कर्म आदि) समवाय सम्बन्ध (inseparable inherence) से आश्रित रहते हैं। यह पंचमहाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी) का संघात (combination) होता है, जिसमें किसी एक या अधिक महाभूत की प्रधानता होती है।
श्लोक (चरक संहिता)
यत्राश्रिताः कर्मगुणाः कारणं समवायि यत्।
            तद् द्रव्यम्॥ (च.सू. १/५१)
व्याख्या:
जो (अपने कार्य का) समवायि (insperable) कारण है, और जिसमें कर्म और गुण आश्रित रहते हैं, वह द्रव्य है।
उदाहरण: 'अश्वगंधा' एक द्रव्य है। 'बल्य' (शक्ति देना) उसका कर्म है और 'गुरु, स्निग्ध' उसके गुण हैं। ये गुण और कर्म अश्वगंधा से अलग नहीं किए जा सकते।
द्रव्य को मुख्य रूप से 3 स्त्रोतों (Yoni) में वर्गीकृत किया गया है:
- औद्भिद (Audbhida): वनस्पति से प्राप्त (जैसे - आँवला, गिलोय, हरीतकी)। इन्हें पुनः ४ भागों में बांटा गया है - वनस्पति (बिना फूल के फल), वानस्पत्य (फूल के बाद फल), वीरुध (लताएं), ओषधि (फल पकने पर नष्ट होने वाले)।
- जांगम (Jangama): प्राणियों से प्राप्त (जैसे - दुग्ध, मधु, घृत, मांस रस, कस्तूरी, गोरोचन, शंख, प्रवाल)।
- पार्थिव/भौम (Parthiva): पृथ्वी से प्राप्त खनिज (जैसे - स्वर्ण, लौह, अभ्रक, ताम्र, शिलाजतु, गैरिक)।
द्रव्य का वर्गीकरण प्रयोग (Prayoga) के आधार पर भी किया जाता है - औषध द्रव्य (Medicinal), आहार द्रव्य (Dietary), और विष द्रव्य (Poisonous)। कर्म (Karma) के आधार पर भी वर्गीकरण होता है - शमन (Pacifying), कोपन (Aggravating), और स्वस्थहित (Maintaining health)।
2. गुण (Guna - The Property)
गुण वे निष्क्रिय (passive) धर्म हैं जो द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहते हैं और द्रव्य के कर्म को उत्पन्न करने में कारण या सहायक होते हैं। मुख्य रूप से 41 गुण माने गए हैं - 5 सार्थ गुण (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध), 20 गुर्वादि गुण, 6 परादि गुण, और 10 आध्यात्मिक गुण (इच्छा, द्वेष आदि)। चिकित्सा में गुर्वादि और परादि गुण अधिक महत्वपूर्ण हैं।
श्लोक (चरक संहिता)
समवायि तु निश्चेष्टः कारणं गुणः॥ (च.सू. १/५१)
व्याख्या:
जो द्रव्य में समवायि सम्बन्ध से रहता है, स्वयं निश्चेष्ट (inactive) होता है, (किन्तु कर्म का) कारण होता है, वह गुण है।
गुण स्वयं कोई क्रिया नहीं करते, पर द्रव्य को क्रिया करने की क्षमता देते हैं। उदाहरण: अग्नि में 'उष्ण' (गर्म) गुण है। यह 'उष्ण' गुण ही अग्नि से 'दाह' (जलाने) का कर्म करवाता है।
चिकित्सा में 20 गुर्वादि गुण (10 जोड़े) सबसे महत्वपूर्ण हैं:
- गुरु (भारी) x लघु (हल्का): गुरु बृंहण, मंद पाचन करता है; लघु लंघन, शीघ्र पाचन करता है।
- शीत (ठंडा) x उष्ण (गर्म): शीत स्तंभन, मूर्च्छानाशक है; उष्ण स्वेदन, पाचन, दाहकारक है।
- स्निग्ध (चिकना) x रूक्ष (रूखा): स्निग्ध स्नेहन, मृदुकारक, बल्य है; रूक्ष शोषण, खरता, स्तंभन करता है।
- मंद (धीमा) x तीक्ष्ण (तेज): मंद शमन करता है; तीक्ष्ण शोधन, लेखन करता है।
- स्थिर (स्थिर) x चल/सर (गतिशील): स्थिर धारण करता है; चल प्रेरण, अनुलोमन करता है।
- मृदु (मुलायम) x कठिन (कठोर): मृदु शिथिल करता है; कठिन दृढ़ता लाता है।
- विशद (स्वच्छ) x पिच्छिल (चिपचिपा): विशद क्लेद का शोषण, रोपण करता है; पिच्छिल लेपन, जीवन, बल्य है।
- श्लक्ष्ण (चिकना/मुलायम) x खर (खुरदरा): श्लक्ष्ण रोपण, स्नेहन करता है; खर लेखन, शोषण करता है।
- सूक्ष्म (सूक्ष्म) x स्थूल (मोटा): सूक्ष्म स्रोतों में प्रवेश करता है; स्थूल स्रोतों का अवरोध करता है।
- सान्द्र (गाढ़ा) x द्रव (तरल): सान्द्र प्रसादन, बल्य है; द्रव क्लेदन, विलोडन करता है।
उदाहरण: 'गुरु' गुण वाला द्रव्य (जैसे उड़द) शरीर में भारीपन और 'बृंहण' (Nourishing) कर्म करता है, जबकि 'लघु' गुण वाला द्रव्य (जैसे मूँग दाल) शरीर में हल्कापन और 'लंघन' (Lightening) कर्म करता है।
3. रस (Rasa - The Taste)
रस द्रव्य का वह गुण है जिसका ज्ञान 'रसना इन्द्रिय' (जीभ) द्वारा, जब वह स्वस्थ अवस्था में हो और द्रव्य के संपर्क में आये, तब होता है। यह 6 प्रकार का होता है - मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय।
श्लोक (चरक संहिता)
रसनार्थो रसस्तस्य द्रव्यमापः क्षितिस्तथा॥ (च.सू. १/६४)
व्याख्या:
रसना (जीभ) का विषय 'रस' है। रस (की उत्पत्ति) का मुख्य आश्रय द्रव्य (Basis) जल और पृथ्वी महाभूत हैं। (अन्य महाभूत भी सहयोगी होते हैं)।
प्रत्येक रस का एक विशिष्ट पंचभौतिक संघटन (Panchabhautika Composition) होता है, जो उसके कर्म को निर्धारित करता है।
- मधुर (Sweet): पृथ्वी + जल (जैसे - घी, दूध, शर्करा) - कफ वर्धक, वात-पित्त शामक, बृंहण, बल्य।
- अम्ल (Sour): पृथ्वी + अग्नि (जैसे - नींबू, इमली, दही) - पित्त-कफ वर्धक, वात शामक, दीपन, पाचन, रोचन।
- लवण (Salty): जल + अग्नि (जैसे - सैंधव लवण, सामुद्र लवण) - पित्त-कफ वर्धक, वात शामक, क्लेदन, भेदन, रोचन।
- कटु (Pungent): वायु + अग्नि (जैसे - मिर्च, पिप्पली, शुण्ठी) - वात-पित्त वर्धक, कफ शामक, दीपन, पाचन, छेदन, लेखन।
- तिक्त (Bitter): वायु + आकाश (जैसे - नीम, करेला, चिरायता) - वात वर्धक, पित्त-कफ शामक, रोचन, दीपन, कृमिघ्न, ज्वरघ्न।
- कषाय (Astringent): वायु + पृथ्वी (जैसे - हरीतकी, बबूल, अर्जुन) - वात वर्धक, पित्त-कफ शामक, स्तंभन, रोपण, लेखन।
रस का ज्ञान केवल जीभ से होता है। कई बार द्रव्य का मुख्य रस होता है और उसके साथ एक गौण रस (Anurasa) भी होता है, जो बाद में या कम मात्रा में अनुभव होता है (जैसे आँवला में अम्ल रस के बाद मधुर)।
4. वीर्य (Virya - The Potency)
वीर्य द्रव्य की वह शक्ति (Potency/Active principle) है जिसके द्वारा द्रव्य शरीर में अपना मुख्य कर्म करता है। द्रव्य में उपस्थित अनेक गुणों में जो गुण सबसे बलवान होकर कर्म करता है, उसे वीर्य कहते हैं। सामान्यतः यह 2 प्रकार का माना जाता है - शीत (ठंडा) और उष्ण (गर्म)।
श्लोक
येन कर्म करोति यत्। वीर्यं तदुच्यते॥
व्याख्या:
द्रव्य जिस शक्ति (Power) से कर्म करता है, उसे वीर्य कहते हैं।
वीर्य, रस और विपाक दोनों से अधिक बलवान होता है (रस < विपाक < वीर्य < प्रभाव)। जब रस और वीर्य में विरोध हो तो वीर्य की प्रधानता होती है। उदाहरण: 'मत्स्य' (मछली) का रस 'मधुर' है (जो शीत होना चाहिए), लेकिन उसका वीर्य 'उष्ण' (Hot) होता है, इसलिए वह शरीर में गर्मी बढ़ाती है। 'मरिच' (काली मिर्च) का रस 'कटु' (Pungent) होता है, लेकिन उसका वीर्य 'उष्ण' (Hot) होता है, इसीलिए वह शरीर में गर्मी बढ़ाती है और कफ का शमन करती है।
यह मुख्य द्विविध वीर्य है। कुछ आचार्य चरक आदि अष्टविध वीर्य (Ashta Virya) भी मानते हैं - गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण, मृदु, तीक्ष्ण (ये गुर्वादि गुणों में से ही हैं जो कर्म में प्रधान होते हैं)।
5. विपाक (Vipaka - The Post-Digestive Effect)
विपाक का अर्थ है 'विशिष्ट पाक'। जठराग्नि (पाचन) की क्रिया के बाद द्रव्य का जो अंतिम रस परिवर्तित रूप बनता है, उसे विपाक कहते हैं। यह वह अंतिम अवस्था है जिसके बाद द्रव्य का शरीर में शोषण (absorption) होता है और वह अपना कर्म करता है। यह 3 प्रकार का होता है - मधुर, अम्ल, कटु।
श्लोक (अष्टांगहृदय)
जठराग्निना योगाद् यदुदेति रसान्तरम्।
            रसानां परिणामान्ते स विपाक इति स्मृतः॥ (अ.हृ.सू. ९/२०)
व्याख्या:
जठराग्नि के योग से रसों का पाचन होने के बाद, जो रसान्तर (दूसरा रस) उत्पन्न होता है, उसे विपाक कहते हैं।
यह पाचन के बाद का अंतिम प्रभाव है जो पूरे शरीर पर होता है। इसका सामान्य नियम है:
- मधुर और लवण रस का विपाक 'मधुर' होता है (यह कफ को बढ़ाता है, मल-मूत्र की प्रवृत्ति कराता है)।
- अम्ल रस का विपाक 'अम्ल' होता है (यह पित्त को बढ़ाता है, मल-मूत्र की प्रवृत्ति कराता है)।
- कटु, तिक्त, कषाय रस का विपाक 'कटु' होता है (यह वात को बढ़ाता है, मल-मूत्र को रोकता है)।
(नोट: सुश्रुत ने केवल दो ही विपाक माने हैं - मधुर और कटु। वे अम्ल को पित्त के साथ मानते हैं और लवण को मधुर विपाक में गिनते हैं।)
6. प्रभाव (Prabhava - The Specific Action)
प्रभाव द्रव्य का सबसे महत्वपूर्ण और अचिन्त्य (unexplainable by Rasa-Virya-Vipaka) कर्म है। यह द्रव्य की विशिष्ट शक्ति है जिसे तर्कों से सिद्ध नहीं किया जा सकता।
श्लोक
रस-गुण-वीर्य-विपाकानां साम्ये सति कर्म-विशेषकरः प्रभावः।
व्याख्या:
जब दो द्रव्यों का रस, गुण, वीर्य और विपाक सब कुछ समान हो, फिर भी उनके कर्म में भिन्नता हो, तो उसका कारण 'प्रभाव' होता है।
उदाहरण:
- 'दन्ती' और 'चित्रक', दोनों का रस कटु, गुण लघु-रूक्ष, वीर्य उष्ण और विपाक कटु है। सब कुछ समान होने पर भी 'दन्ती' विरेचन (Purgation) कराती है, जबकि 'चित्रक' दीपन-पाचन (Appetizer) करता है। यह भिन्न कर्म उनके 'प्रभाव' के कारण है।
- 'घृत' (घी) और 'दुग्ध' (दूध), दोनों मधुर रस, शीत वीर्य, मधुर विपाक हैं, पर घृत अग्नि दीपन करता है जबकि दूध नहीं। यह घृत का प्रभाव है।
- 'शंखपुष्पी' का Medhya (मेधा बढ़ाने वाला) कर्म उसके प्रभाव से है।
- 'विष' का प्राण हरने वाला कर्म भी उसका प्रभाव है।
7. कर्म (Karma - The Action)
द्रव्य का शरीर पर होने वाला अंतिम प्रभाव (Effect/Action), जो दोष, धातु, या मल पर होता है, वही उसका कर्म है। कर्म ही चिकित्सा का लक्ष्य होता है।
श्लोक (चरक संहिता)
संयोगे च विभागे च कारणं द्रव्यमाश्रितम्।
            कर्तव्यस्य क्रिया कर्म, कर्म नान्यदपेक्षते॥ (च.सू. १/५२)
व्याख्या:
जो संयोग और विभाग में कारण है, द्रव्य के आश्रित रहता है, और की जाने वाली क्रिया (action) है, वही 'कर्म' है। कर्म (पूर्ण होने पर) किसी अन्य की अपेक्षा नहीं रखता।
कर्म ही द्रव्य का अंतिम चिकित्सीय प्रभाव (Therapeutic Action) है। द्रव्यगुण में विभिन्न कर्मों का विस्तार से वर्णन है, जैसे:
- दोषों पर कर्म: वातशामक, पित्तशामक, कफशामक, त्रिदोषशामक, वातवर्धक आदि।
- धातुओं पर कर्म: रसयन, शुक्रल, स्तन्यजनन, लेखन, बृंहण आदि।
- मलों पर कर्म: भेदन, रेचन, अनुलोमन, संग्राहि, मूत्रल, स्वेदाजनन आदि।
- अंग विशेष पर कर्म: हृद्य (हृदय के लिए हितकर), मेध्य (बुद्धि वर्धक), चक्षुष्य (आँखों के लिए हितकर), केश्य (बालों के लिए हितकर) आदि।
- रोग विशेष पर कर्म: ज्वरघ्न (Antipyretic), कासहर (Antitussive), शूलप्रशमन (Analgesic), कृमिघ्न (Anthelmintic) आदि।
किसी द्रव्य का कर्म उसके रस, गुण, वीर्य, विपाक और प्रभाव पर निर्भर करता है।
आधुनिक सहसंबंध (Modern Correlation)
BAMS छात्रों के लिए द्रव्यगुण के सिद्धांतों को आधुनिक फार्माकोलॉजी से जोड़ना बहुत महत्वपूर्ण है। यह विषय को रटने के बजाय समझने में मदद करता है।
Dravyaguna vs. Modern Pharmacology
- Pharmacokinetics (फार्माकोकाइनेटिक्स): इसका अर्थ है 'शरीर दवा के साथ क्या करता है' (What body does to the drug - ADME: Absorption, Distribution, Metabolism, Excretion)। आयुर्वेद में इसका सहसंबंध 'विपाक' (Vipaka) और पाचन की प्रक्रिया ('अवस्था पाक' - मधुर, अम्ल, कटु) से किया जा सकता है। विपाक द्रव्य के पाचन, चयापचय (Metabolism and post-digestive changes) और शरीर द्वारा उसके अवशोषण एवं उत्सर्जन की प्रक्रिया को दर्शाता है।
- Pharmacodynamics (फार्माकोडायनामिक्स): इसका अर्थ है 'दवा शरीर के साथ क्या करती है' (What drug does to the body - Mechanism of Action & Effects)। आयुर्वेद में इसका सहसंबंध 'रस', 'गुण', 'वीर्य' (Virya) और 'प्रभाव' (Prabhava) से है। ये सभी मिलकर द्रव्य की शक्ति (Potency) और उसके शरीर पर होने वाले चिकित्सीय प्रभाव (Therapeutic Action) को दिखाते हैं, जिसे हम अंततः 'कर्म' (Karma) कहते हैं। वीर्य को दवा की मुख्य शक्ति (Active Principle's Potency) और प्रभाव को विशिष्ट, अद्वितीय क्रिया (Specific/Unique action) के रूप में समझा जा सकता है।
यह सहसंबंध समझने के लिए है, ये पूरी तरह से समान नहीं हैं क्योंकि आयुर्वेद का दृष्टिकोण अधिक समग्र (holistic) है और पंचमहाभूत सिद्धांत पर आधारित है।
चिकित्सीय महत्व (Clinical Importance)
द्रव्यगुण का ज्ञान ही एक वैद्य को 'युक्ति' (logic and rationale) प्रदान करता है, जिससे वह सही रोगी के लिए सही औषधि का चयन कर पाता है। केवल यह जानकर कि 'अश्वगंधा बल्य है' या 'त्रिफला रेचक है' चिकित्सा नहीं हो सकती।
एक सफल वैद्य को पता होता है कि अश्वगंधा 'उष्ण वीर्य' और 'मधुर विपाक' है, इसलिए वह उसे 'पित्त' प्रकृति वाले रोगी को या 'अम्लपित्त' (Acidity) से पीड़ित रोगी को देते समय सावधानी बरतेगा या अन्य शीत वीर्य द्रव्यों (जैसे शतावरी, मुलेठी) के साथ देगा। उसे यह भी पता है कि मधुर विपाक होने के कारण यह कफ बढ़ा सकता है, इसलिए कफज रोगों में इसे अकेले नहीं देगा।
इसी प्रकार, 'शीत वीर्य' द्रव्य (जैसे चन्दन, उशीर, शतावरी) का प्रयोग 'पित्तज विकारों' (जैसे दाह, रक्तपित्त, पित्तज ज्वर) में किया जाता है, जबकि 'उष्ण वीर्य' द्रव्य (जैसे शुण्ठी, पिप्पली, चित्रक) का प्रयोग 'कफज और वातज विकारों' (जैसे शीत, आमवात, श्वास, अग्निमांद्य) में किया जाता है।
इसी प्रकार, 'लेखन' कर्म वाले द्रव्य (जैसे गुग्गुलु, मधु, यव, हरीतकी) का प्रयोग 'मेदोरोग' (Obesity), 'अतिसंतर्पणजन्य व्याधि' (Over-nutrition diseases) या 'आम' (toxins) को खुरच कर बहार निकालने के लिए किया जाता है, क्योंकि उनका गुण 'रूक्ष', 'लघु', 'खर' या 'विशद' होता है और विपाक 'कटु' होता है।
रस, वीर्य, विपाक का ज्ञान वैद्य को यह समझने में मदद करता है कि कोई द्रव्य रोग को क्यों और कैसे ठीक करेगा, और उसके संभावित दुष्प्रभाव (side effects) क्या हो सकते हैं। यह सारा ज्ञान द्रव्यगुण विज्ञान से ही आता है।
परीक्षा-उपयोगी प्रश्न (Exam-Oriented Questions)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (10 Marks Questions)
- द्रव्यगुण विज्ञान की परिभाषा दें और सप्त पदार्थों का विस्तार से वर्णन करें।
- Define Dravyaguna Vigyana. Explain the Sapt Padarthas in detail with examples.
- रस, वीर्य, विपाक, और प्रभाव की सोदाहरण (with examples) व्याख्या करें और उनके पारस्परिक सम्बन्ध (inter-relationship) और बलाबल (relative strength) को समझाएं।
- गुर्वादि गुणों का वर्गीकरण करें और प्रत्येक गुण के कर्म का वर्णन करें।
लघु उत्तरीय प्रश्न (5 Marks Questions)
- 'रस पंचक' (Rasa Panchaka) क्या है? इसके महत्व को समझाएं।
- वीर्य और विपाक में भेद करें। (Differentiate between Virya and Vipaka with examples)
- प्रभाव को उदाहरण सहित समझाएं। (Explain Prabhava with suitable examples like Danti-Chitraka, Ghrita-Dugdha)
- द्रव्य और गुण की परिभाषा लिखें। (Define Dravya and Guna as per Charaka)
- गुर्वादि गुणों का चिकित्सीय महत्व बताएं। (Clinical significance of Gurvadi Gunas)
- रस और विपाक में क्या सम्बन्ध है? (Relationship between Rasa and Vipaka)
अति लघु उत्तरीय प्रश्न (2 Marks Questions)
- द्रव्य की परिभाषा (च.सू. १/५१) लिखें।
- वीर्य के भेद लिखें। (Types of Virya - Dwividha and Ashtavidha)
- विपाक के भेद लिखें। (Types of Vipaka according to Charaka/Vagbhata and Sushruta)
- दन्ती और चित्रक का प्रभाव-भेद बताएं।
- मधुर रस का पंचभौतिक संघटन क्या है?
- 'समवायि तु निश्चेष्टः कारणं गुणः' - यह किसकी परिभाषा है?
- द्रव्य के योनि भेद बताएं। (Sources of Dravya)
 
 
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