Amidha Ayurveda

28/10/25

Single drug (Herbal & Mineral)

In This Article
    अध्याय २: एकल द्रव्य प्रयोग (भल्लातक, गंधक, गैरिक) - भैषज्यकल्पना नोट्स | BAMS Notes

    अध्याय २: एकल द्रव्य प्रयोग (भल्लातक, गंधक, गैरिक)

    ३. भल्लातक (Bhallataka - Semecarpus anacardium)

    भल्लातक, जिसे 'अग्निमुख' (अग्नि के समान तीक्ष्ण) और 'अरुष्कर' (फोड़े उत्पन्न करने वाला) भी कहते हैं, आयुर्वेद की एक अत्यंत शक्तिशाली परन्तु 'विषोपविष' (Semi-poisonous) वर्ग की औषधि है। इसका प्रयोग अत्यंत सावधानीपूर्वक, **केवल शोधन (Purification) के बाद** और योग्य चिकित्सक की देखरेख में ही किया जाना चाहिए।

    ⚠️ **अत्यंत महत्वपूर्ण चेतावनी** ⚠️

    अशुद्ध भल्लातक या इसका अनुचित प्रयोग अत्यंत हानिकारक हो सकता है। इससे तीव्र त्वचा दाह (Severe skin burns/blisters), रक्तपित्त (Bleeding disorders), वृक्क विकार (Kidney damage) और अन्य गंभीर समस्याएं हो सकती हैं। इसका प्रयोग केवल शास्त्रोक्त विधि से शोधित करके और चिकित्सक के निर्देशानुसार ही करें।

    भल्लातक: सामान्य गुण-धर्म (General Properties)

    • रस (Rasa): कटु (Pungent), तिक्त (Bitter), कषाय (Astringent)
    • गुण (Guna): लघु (Light), स्निग्ध (Unctuous), तीक्ष्ण (Sharp/Penetrating)
    • वीर्य (Virya): उष्ण (Ushna - Extremely Hot)
    • विपाक (Vipaka): मधुर (Madhura)
    • दोषकर्म (Action on Dosha): कफ-वात शामक, पित्त वर्धक।
    • मुख्य कर्म (Therapeutic Properties): **अग्निवत् दीपन-पाचन** (Powerful digestive stimulant), **छेदन** (Expectorant/Scraping), **भेदन** (Purgative), **कृमिघ्न** (Anthelmintic), **कुष्ठघ्न** (Used in skin diseases), **अर्शोघ्न** (Used in piles), **शोथहर** (Anti-inflammatory), **मेध्य** (Brain tonic - in specific doses), **रसायन** (Rejuvenator - after proper processing)।
    • Chemical/Phytochemical Composition: Bhilawanol (a highly irritant phenolic compound), Anacardic acid, Cardol, Semecarpol. The irritant property is mainly due to Bhilawanol, which is reduced/neutralized during shodhana.

    भल्लातक शोधन (Purification)

    अशुद्ध भल्लातक का प्रयोग वर्जित है।

    • विधि: पके हुए, जल में डूबने वाले भल्लातक फलों को लेकर, उनकी वृन्त (टोपी) हटा दें। फलों को ईंट के चूर्ण (Brick powder) के साथ रगड़कर या गोमूत्र/गोदुग्ध में स्वेदन करके (दोला यन्त्र में) शोधित किया जाता है। इससे उसका तीक्ष्ण तैल (Irritant oil) कम हो जाता है।

    भल्लातक का अवस्थाअनुसार प्रयोग (Awasthanusara Uses)

    इसका प्रयोग कफ-वात प्रधान रोगों में, मंदाग्नि की अवस्था में, और शोथयुक्त व्याधियों में किया जाता है। **पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों, गर्भवती स्त्रियों, बालकों, वृद्धों, और ग्रीष्म/शरद ऋतु में इसका प्रयोग वर्जित है।**

    • अर्श (Piles - Non-bleeding): गुद (Guda), अवलेह (Avaleha), या घृत (Ghrita) कल्पना का प्रयोग किया जाता है। यह अर्श के मस्सों को सुखाता है।
    • कुष्ठ / त्वचा रोग (Skin Diseases - कफज): लेप (External paste), तैल (Oil), या क्वाथ का प्रयोग होता है।
    • गुल्म / उदर रोग (Abdominal tumors/disorders - कफ-वातज): घृत या मोदक का प्रयोग।
    • अग्निमांद्य / ग्रहणी (Indigestion / Malabsorption): अल्प मात्रा में मोदक या अवलेह।
    • रसायन (Rejuvenation): केवल शोधित भल्लातक का वर्धमान प्रयोग (Gradually increasing dose) अत्यंत सावधानी से चिकित्सक की देखरेख में।

    भल्लातक की प्रमुख कल्पनाएँ (Major Formulations)

    ध्यान दें: इन सभी कल्पनाओं में **केवल 'शोधित भल्लातक'** का ही प्रयोग किया जाता है।

    १. भल्लातक मोदक (Bhallataka Modaka)

    • सन्दर्भ: भैषज्य रत्नावली (B.R.), प्लीह-यकृत् रोगाधिकार।
    • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक, त्रिकटु, त्रिफला, चित्रक, विडंग, गुड़ आदि।
    • Pharmacodynamics: अत्यंत उष्ण, तीक्ष्ण, दीपन-पाचन, कफ-वात शामक, भेदन, कृमिघ्न। यह अग्नि को प्रचंड करता है और संचित कफ-आम का भेदन करता है।
    • मुख्य संकेत (Indications): प्लीह-यकृत् वृद्धि (Splenomegaly/Hepatomegaly - कफज), अग्निमांद्य, ग्रहणी, अर्श, कृमि रोग।
    • मात्रा (Matra): अत्यंत अल्प (Initially 1 रत्ती - 125mg, gradually increased under supervision)।
    • अनुपान (Anupana): दुग्ध (Milk - to counteract heat), घृत (Ghee)।
    • सेवन काल (Sevana Kala): भोजनोपरांत।
    • Kala Maryada: अल्प काल के लिए (Few weeks), चिकित्सक की सलाह से।

    २. भल्लातक घृत (Bhallataka Ghrita)

    • सन्दर्भ: B.R., गुल्म रोगाधिकार।
    • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक (कल्क/क्वाथ), गो घृत।
    • Pharmacokinetics: घृत कल्पना होने से यह भल्लातक के तीक्ष्ण गुणों को कुछ हद तक कम (Mitigate) करती है और उसके गुणों को स्रोतसों में गहराई तक ले जाती है।
    • Pharmacodynamics: उष्ण, दीपन, पाचन, अनुलोमक, गुल्मनाशक (Reduces abdominal lumps)।
    • मुख्य संकेत (Indications): कफ-वातज गुल्म, उदर रोग, अर्श।
    • मात्रा (Matra): ३-६ ग्राम, चिकित्सक की देखरेख में।
    • अनुपान (Anupana): उष्ण दुग्ध।

    ३. भल्लातक गुद (Bhallataka Guda)

    • सन्दर्भ: B.R., अर्श रोगाधिकार।
    • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक, चित्रक, त्रिकटु, त्रिफला, गुड़ आदि। (यह 'गुद कल्पना' - गुड़ आधारित पाक है)।
    • Pharmacodynamics: मोदक के समान, परन्तु गुड़ के कारण अधिक अनुलोमक। अर्शोघ्न (Effective in piles)।
    • मुख्य संकेत (Indications): शुष्क अर्श (Non-bleeding piles), भगंदर (Fistula-in-ano), अग्निमांद्य।
    • मात्रा (Matra): अल्प मात्रा (e.g., 1-2 ग्राम)।
    • अनुपान (Anupana): दुग्ध, तक्र।

    ४. भल्लातकादि तैल (Bhallatakadi Taila)

    • सन्दर्भ: B.R., नाडीव्रण रोगाधिकार।
    • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक, विभिन्न व्रणशोधक-रोपक द्रव्य, तिल तैल।
    • Pharmacodynamics (External): तीक्ष्ण, उष्ण, छेदन, लेखन, व्रणशोधन (Wound cleaning), कृमिघ्न। यह दुष्ट व्रण (Non-healing ulcer) या नाडीव्रण (Sinus tract) के भीतर जाकर दूषित मांस को हटाता है और रोपण (Healing) में मदद करता है।
    • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग (External use only)** - नाडीव्रण, दुष्ट व्रण, कफज कुष्ठ।
    • प्रयोग विधि: व्रण में बत्ती (Gauze wick) भिगोकर लगाना।
    • Side Effects: त्वचा पर दाह (Burning), फफोले (Blisters) उत्पन्न कर सकता है। अत्यंत सावधानी से प्रयोग करें।

    ५. भल्लातक अवलेह (Bhallataka Avaleha)

    • सन्दर्भ: B.R., अर्श रोगाधिकार।
    • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक, अन्य दीपन-पाचन द्रव्य, शर्करा/गुड़, घृत, मधु।
    • Pharmacodynamics: गुद कल्पना के समान, परन्तु अवलेह रूप में। दीपन, पाचन, अर्शोघ्न, बल्य।
    • मुख्य संकेत (Indications): अर्श, अग्निमांद्य, ग्रहणी।
    • मात्रा (Matra): ३-६ ग्राम।
    • अनुपान (Anupana): दुग्ध।

    ६. भल्लातकादि लेप (Bhallatakadi Lepa)

    • सन्दर्भ: B.R., कुष्ठ रोगाधिकार।
    • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक, अन्य कुष्ठघ्न द्रव्य (जैसे - करंज, निम्ब), गोमूत्र या कोई द्रव माध्यम।
    • Pharmacodynamics (External): उष्ण, तीक्ष्ण, लेखन, कुष्ठघ्न। यह त्वचा के विकारों में दूषित कफ और क्लेद को सुखाता है।
    • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - कफज कुष्ठ, श्वित्र (Leucoderma), दाद (Ringworm)।
    • प्रयोग विधि: प्रभावित स्थान पर लेप लगाना।
    • Side Effects: त्वचा पर तीव्र जलन, फफोले हो सकते हैं। पहले अल्प क्षेत्र पर लगाकर परीक्षण (Patch test) करना आवश्यक है।

    ७. भल्लातकादि क्वाथ (Bhallatakadi Kwatha)

    • सन्दर्भ: B.R., उरुस्तम्भ रोगाधिकार।
    • प्रमुख घटक: शोधित भल्लातक, अन्य कफ-मेद-वात शामक द्रव्य।
    • Pharmacodynamics: उष्ण, तीक्ष्ण, छेदन, कफ-मेद विलयन (Dissolves kapha and meda)।
    • मुख्य संकेत (Indications): उरुस्तम्भ (Stiffness/immobility of thighs due to kapha-ama), स्थौल्य (Obesity), कफज शोथ (Inflammation)।
    • मात्रा (Matra): ४०-८० ml।
    • अनुपान (Anupana): मधु या गोमूत्र।

    भल्लातक प्रयोग जन्य व्यापद एवं शांति उपाय (Side effects / Toxicity & Management)

    अशुद्ध भल्लातक या अनुचित मात्रा/विधि से सेवन करने पर या पित्त प्रकृति वाले व्यक्ति में निम्न लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं:

    • त्वचा पर: तीव्र दाह (Burning), शोथ (Swelling), स्फोट (Blisters), कंडू (Itching)।
    • आंतरिक: मुखपाक (Stomatitis), गुदपाक (Anal inflammation), तीव्र अम्लपित्त, रक्तपित्त (Bleeding), मूत्रदाह/मूत्रकृच्छ (Burning micturition), वृक्क शोथ (Nephritis)।

    शांति उपाय (Shantyupaya / Antidotes & Management):

    • तत्काल प्रयोग बंद करें।
    • बाह्य: नारियल तेल (Coconut oil), घृत, या मक्खन का लेप करें। तिल कल्क (Sesame paste) का लेप भी उपयोगी है।
    • आंतरिक:
      • **सर्वश्रेष्ठ:** **गो घृत (Cow's ghee)** और **गो दुग्ध (Cow's milk)** का प्रचुर मात्रा में सेवन।
      • नारियल जल (Coconut water) का पान।
      • पित्तशामक औषधियां: शतावरी, यष्टिमधु, आमलकी, चन्दन, उशीर।
      • यदि आवश्यक हो तो मृदु विरेचन (Mild purgation) दें।

    भल्लातक प्रयोग: सामान्य पथ्य-अपथ्य (Pathyapathya)

    • पथ्य (Compatible): **गो घृत और गो दुग्ध का प्रचुर सेवन अनिवार्य है।** लघु, स्निग्ध, मधुर रस प्रधान भोजन। पुराने शालि चावल, मूंग दाल।
    • अपथ्य (Incompatible): **अम्ल, लवण, कटु रस का पूर्ण त्याग।** उष्ण, तीक्ष्ण, विदाही (Burning sensation causing) भोजन। दधि, मद्य, मांसाहार। आतप सेवन (Sun exposure), अग्नि सेवन, अति श्रम, क्रोध।

    Research Updates:

    Modern research has investigated Bhallataka (Semecarpus anacardium) extensively. Studies have validated its potent **anti-inflammatory, anti-arthritic, anti-cancer, antioxidant, and hypoglycemic activities**. The constituent Bhilawanol is identified as the major bioactive but also toxic component. Research focuses on methods to reduce its toxicity while retaining therapeutic effects, mirroring the Ayurvedic Shodhana process. Clinical evidence supports its use (with caution) in rheumatoid arthritis, certain skin conditions, and potentially as an adjuvant in cancer therapy, but high-quality human trials are limited due to toxicity concerns.


    ४. गंधक (Gandhaka - Sulphur)

    गंधक, जिसे 'शुल्वारि' (ताम्र का शत्रु) भी कहते हैं, एक अधातु (Non-metal) खनिज द्रव्य है। यह रसशास्त्र में पारद के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण द्रव्य माना जाता है ('पारद का वीर्य')। इसका प्रयोग विभिन्न रोगों, विशेषकर त्वचा रोगों (कुष्ठ), में होता है। गंधक का प्रयोग भी **केवल शोधन (Purification) के बाद** ही किया जाता है।

    ⚠️ **चेतावनी** ⚠️

    अशुद्ध गंधक का सेवन हानिकारक है। इससे त्वचा विकार, जलन, चक्कर आना आदि लक्षण हो सकते हैं। इसका प्रयोग केवल शास्त्रोक्त विधि से शोधित करके और चिकित्सक के निर्देशानुसार ही करें।

    गंधक: सामान्य गुण-धर्म (General Properties)

    • रस (Rasa): मधुर (Sweet - after shodhana, initially pungent/bitter)
    • गुण (Guna): स्निग्ध (Unctuous), गुरु (Heavy), सर (Mobile)
    • वीर्य (Virya): उष्ण (Ushna)
    • विपाक (Vipaka): कटु (Pungent) - *कुछ आचार्य मधुर भी मानते हैं।*
    • दोषकर्म (Action on Dosha): त्रिदोषहर (विशेषतः कफ-वात शामक), पित्त सारक।
    • मुख्य कर्म (Therapeutic Properties): **रसायन** (Rejuvenator - esp. Gandhaka Rasayana), **कुष्ठघ्न** (Excellent for skin diseases), **कण्डूघ्न** (Anti-pruritic), **कृमिघ्न** (Anthelmintic), **दीपन-पाचन**, **आमपाचक**, **विषघ्न** (Anti-toxic), **वृष्य** (Aphrodisiac)।
    • Chemical Composition: Sulphur (S).

    गंधक शोधन (Purification)

    गंधक में पाषाण (Stone) और विष (Arsenic compounds) की अशुद्धियाँ होती हैं।

    • सामान्य विधि (भृंगराज स्वरस द्वारा): गंधक के टुकड़ों को लोहे की कड़ाही में गो घृत डालकर पिघलाया जाता है। पिघले हुए गंधक को भृंगराज स्वरस (या गोदुग्ध) में डूबे हुए वस्त्र से छानकर गिराया जाता है। इस प्रक्रिया को ३ से ७ बार दोहराया जाता है।

    गंधक का अवस्थाअनुसार प्रयोग (Awasthanusara Uses)

    • त्वचा रोग / कण्डू (Skin Diseases/Itching): चूर्ण, रसायन, तैल या मलहर का प्रयोग (आंतरिक और बाह्य)।
    • जीर्ण ज्वर / धातुगत ज्वर: गंधक रसायन।
    • अग्निमांद्य / आमवात: गंधक वटी।
    • कृमि रोग: गंधक चूर्ण।
    • रसायन / बल वृद्धि: गंधक रसायन।

    गंधक की प्रमुख कल्पनाएँ (Major Formulations)

    १. गंधक चूर्ण (Gandhaka Churna - Shuddha)

    • सन्दर्भ: सिद्ध योग संग्रह (SY)
    • निर्माण: केवल 'शोधित गंधक' का बारीक चूर्ण।
    • Pharmacodynamics: उष्ण वीर्य, कटु विपाक। यह दीपन, पाचन, कृमिघ्न, कण्डूघ्न और कुष्ठघ्न है।
    • मुख्य संकेत (Indications): कण्डू (Itching), पामा (Scabies), विचर्चिका (Eczema), कृमि रोग।
    • मात्रा (Matra): १-२ रत्ती (125-250 mg)।
    • अनुपान (Anupana): मधु, घृत, या रोगानुसार।
    • Side Effects: उष्ण होने से पित्त प्रकृति वालों में दाह या अम्लपित्त कर सकता है।

    २. गंधक रसायन (Gandhaka Rasayana)

    • सन्दर्भ: AFI Part II
    • निर्माण: शोधित गंधक को चतुर्जात, त्रिकटु, त्रिफला, गुडूची, भृंगराज आदि अनेक द्रव्यों के स्वरस/क्वाथ की 'भावना' (Levigation) देकर तैयार किया जाता है। यह एक जटिल प्रक्रिया है।
    • Pharmacodynamics: यह गंधक का 'रसायन' योग है। भावना देने वाले द्रव्यों के गुणों से गंधक के उष्ण-तीक्ष्ण गुण कम होते हैं और रसायन, विषघ्न, रक्तशोधक (Blood purifier) गुण बढ़ जाते हैं। यह त्रिदोषहर और व्याधिक्षमत्व वर्धक (Immunomodulator) है।
    • Pharmacokinetics: भावना देने से यह सूक्ष्म (Subtle) और अधिक Bioavailable हो जाता है।
    • मुख्य संकेत (Indications): **सर्व कुष्ठ** (All types of skin diseases), कण्डू, विसर्प, उपदंश (Syphilis), जीर्ण ज्वर, आमवात, श्वास, कास, दौर्बल्य। यह एक उत्कृष्ट रसायन है।
    • मात्रा (Matra): १-४ रत्ती (125-500 mg)।
    • अनुपान (Anupana): मधु, घृत, दुग्ध, या रोगानुसार।
    • Kala Maryada: दीर्घ काल तक सेवन योग्य।
    • Research: गंधक रसायन पर शोध इसके Anti-inflammatory, Antioxidant, Anti-allergic, and Immunomodulatory गुणों की पुष्टि करते हैं, जो त्वचा रोगों और एलर्जी में इसकी उपयोगिता सिद्ध करते हैं।

    ३. गंधक द्रुति (Gandhaka Druti)

    • सन्दर्भ: रस हृदय तंत्र (RRR) ३
    • निर्माण: यह गंधक को पिघलाकर (Liquefied state) प्राप्त करने की एक विशिष्ट और जटिल प्रक्रिया है, जिसमें तीव्र अग्नि और विशिष्ट यंत्रों का प्रयोग होता है। यह सामान्यतः प्रयोग में नहीं है।
    • Pharmacodynamics: इसे अत्यंत शक्तिशाली रसायन और योगवाही माना जाता है।
    • मुख्य संकेत (Indications): रसशास्त्र के उच्चतर प्रयोगों में।
    • मात्रा (Matra): अत्यंत अल्प (कुछ बूँद)।

    ४. गंधक तैल (Gandhaka Taila)

    • सन्दर्भ: रस तरंगिणी (R.T.) ८
    • निर्माण: शोधित गंधक को तिल तैल या अन्य तैल के साथ विशिष्ट विधि से पकाया जाता है (जैसे - पाताल यन्त्र द्वारा)।
    • Pharmacodynamics (External): उष्ण, तीक्ष्ण, स्निग्ध, कण्डूघ्न, कुष्ठघ्न, व्रणशोधन-रोपण।
    • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - कण्डू, पामा, विचर्चिका, दद्रु (Ringworm), अन्य त्वचा विकार।
    • प्रयोग विधि: प्रभावित स्थान पर लगाना।

    ५. गंधकाद्य मलहर (Gandhakadya Malahara)

    • सन्दर्भ: AFI Part II
    • प्रमुख घटक: शोधित गंधक, टंकण (Borax), कर्पूर, सिकथ (Beeswax), तिल तैल।
    • Pharmacodynamics (External): मलहर (Ointment) कल्पना होने से यह त्वचा पर अधिक समय तक टिका रहता है। गंधक (कुष्ठघ्न), टंकण (क्षार - Antiseptic), कर्पूर (कण्डूघ्न)।
    • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - पामा, विचर्चिका, कण्डू, दद्रु।
    • प्रयोग विधि: प्रभावित स्थान पर दिन में 2-3 बार लगाना।

    ६. गंधकादि लेप (Gandhakadi Lepa)

    • सन्दर्भ: रसराज सुन्दर (RRS), शिरोरोग चिकित्सा। (Note: कई 'गंधकादि लेप' योग हैं)।
    • प्रमुख घटक: शोधित गंधक, कुष्ठ, देवदारु, वचा, सैंधव आदि, द्रव माध्यम (जैसे - तैल, कांजी)।
    • Pharmacodynamics (External): उष्ण, कफ-वात शामक, शोथहर, वेदनास्थापन।
    • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - शिरोरोग (Headache - कफज), त्वचा रोग, शोथ (Inflammation)।
    • प्रयोग विधि: प्रभावित स्थान पर लेप।

    ७. गंधक वटी (Gandhaka Vati)

    • सन्दर्भ: B.R., अग्निमांद्य रोगाधिकार।
    • प्रमुख घटक: शोधित गंधक, त्रिकटु, चित्रक, शुण्ठी, सैंधव, निम्बू स्वरस की भावना।
    • Pharmacodynamics: उष्ण, तीक्ष्ण, दीपन, पाचन, आमपाचक, शूलघ्न (Anti-spasmodic)। यह जठराग्नि को तीव्र करती है।
    • मुख्य संकेत (Indications): अग्निमांद्य, अजीर्ण, आमवात, उदरशूल, ग्रहणी।
    • मात्रा (Matra): १-२ वटी (१२५-२५० mg)।
    • अनुपान (Anupana): उष्ण जल।
    • सेवन काल (Sevana Kala): भोजनोपरांत या रोगानुसार।

    गंधक प्रयोग: सामान्य पथ्य-अपथ्य (Pathyapathya)

    • पथ्य (Compatible): लघु भोजन, घृत, दुग्ध, मूंग दाल।
    • अपथ्य (Incompatible): अत्यधिक क्षार, अम्ल, लवण। तिल तैल का अधिक प्रयोग। गुरु भोजन।

    ५. गैरिक (Gairika - Red Ochre)

    गैरिक, जिसे 'स्वर्ण गैरिक' (यदि उसमें स्वर्ण के अंश हों) या 'रक्त धातु' भी कहते हैं, एक 'उपरस' वर्ग का खनिज है। यह मुख्य रूप से 'हेमेटाइट' (Hematite - Iron Oxide, Fe₂O₃) का एक प्राकृतिक रूप है। इसका प्रयोग आंतरिक और बाह्य दोनों रूप से किया जाता है। गैरिक का प्रयोग भी **शोधन (Purification)** के बाद ही उत्तम माना जाता है।

    गैरिक: सामान्य गुण-धर्म (General Properties)

    • रस (Rasa): मधुर (Sweet), कषाय (Astringent)
    • गुण (Guna): स्निग्ध (Unctuous), शीत (Cold)
    • वीर्य (Virya): शीत (Shita)
    • विपाक (Vipaka): मधुर (Madhura)
    • दोषकर्म (Action on Dosha): पित्त-कफ शामक।
    • मुख्य कर्म (Therapeutic Properties): रक्तस्तम्भन (Hemostatic/Astringent), दाहप्रशमन (Reduces burning), रक्तपित्तहर (Controls bleeding disorders), हिक्का निग्रहण (Anti-hiccup), व्रणरोपण (Wound healing), चक्षुष्य (Good for eyes), वमन निग्रहण (Anti-emetic), विषघ्न (Anti-toxic)।
    • Chemical Composition: Primarily Ferric Oxide (Fe₂O₃), often with impurities like Silica and Alumina.

    गैरिक शोधन (Purification)

    • विधि: गैरिक के टुकड़ों को गो घृत में भर्जित (Fried) किया जाता है, या गोदुग्ध/त्रिफला क्वाथ की भावना दी जाती है।

    गैरिक का अवस्थाअनुसार प्रयोग (Awasthanusara Uses)

    • रक्तपित्त / रक्तस्राव (Bleeding disorders): आंतरिक प्रयोग (जैसे - लघुसूतशेखर रस) या बाह्य लेप (रक्तस्तम्भन हेतु)।
    • दाह / विसर्प (Burning sensation / Erysipelas): बाह्य प्रदेह (Paste application)।
    • हिक्का / वमन (Hiccup / Vomiting): चूर्ण या रस क्रिया का प्रयोग।
    • नेत्र रोग (Eye diseases): अंजन (Collyrium) रूप में।
    • त्वचा विकार / वर्ण्य (Skin issues / Complexion): बाह्य लेप।

    गैरिक की प्रमुख कल्पनाएँ (Major Formulations)

    १. गैरिक प्रदेह (Gairika Pradeha)

    • सन्दर्भ: चरक संहिता, चिकित्सास्थान २१ (विसर्प चिकित्सा)।
    • निर्माण: शोधित गैरिक चूर्ण को घृत या जल या अन्य शीतल द्रव्यों (जैसे - चन्दन, उशीर) के साथ मिलाकर लेप बनाना।
    • Pharmacodynamics (External): शीत, स्निग्ध, कषाय। यह त्वचा पर लगाने से दाह (Burning), शोथ (Inflammation) और रक्तस्राव को कम करता है। व्रण पर लगाने से रोपण (Healing) में मदद करता है।
    • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - विसर्प (Erysipelas), पित्तज शोथ, दाह, रक्तस्रावी व्रण (Bleeding wounds), पित्तज त्वचा विकार।
    • प्रयोग विधि: प्रभावित स्थान पर लेप लगाना।

    २. लघुसूतशेखर रस (Laghusutshekhar Rasa)

    • सन्दर्भ: AFI Part II
    • प्रमुख घटक: स्वर्ण गैरिक, शुण्ठी, नागवल्ली पत्र स्वरस की भावना।
    • Pharmacodynamics: गैरिक (शीत, पित्तशामक) और शुण्ठी (उष्ण, दीपन-पाचन, आमपाचक) का यह योग **'उभय विपरीत वीर्य'** (Opposite potencies) होते हुए भी विशिष्ट कार्य करता है। यह पित्त का शमन करता है, परन्तु शुण्ठी के कारण अग्नि को मंद नहीं होने देता। यह 'आम' का पाचन कर पित्त की विकृति को दूर करता है।
    • Pharmacokinetics: भावना देने से सूक्ष्म और शीघ्र प्रभावी।
    • मुख्य संकेत (Indications): **अम्लपित्त (Hyperacidity)** की श्रेष्ठ औषध, शिरःशूल (Headache - पित्तज), उदरशूल (Abdominal pain), भ्रम (Vertigo), छर्दि (Vomiting)।
    • मात्रा (Matra): १-२ रत्ती (125-250 mg)।
    • अनुपान (Anupana): मधु, घृत, या दाडिम स्वरस।
    • सेवन काल (Sevana Kala): भोजन पूर्व या आवश्यकतानुसार।

    ३. गैरिकद्य मलहर (Gairikadya Malahara)

    • सन्दर्भ: AFI Part III
    • प्रमुख घटक: गैरिक, रसौत (Rasanjana), मधु, घृत (या सिकथ तैल)।
    • Pharmacodynamics (External): गैरिक (शीत, रोपण), रसौत (कषाय, व्रणशोधन)। यह मलहर व्रणों को भरने और दाह को शांत करने में सहायक है।
    • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - व्रण रोपण (Wound healing), दाह, मुखपाक (Stomatitis - लगाने हेतु), गुदभ्रंश (Anal prolapse - लगाने हेतु)।
    • प्रयोग विधि: प्रभावित स्थान पर लगाना।

    ४. गैरिकद्य गुटिकाञ्जन (Gairikadya Gutikanjana)

    • सन्दर्भ: B.R., नेत्ररोग अधिकार।
    • प्रमुख घटक: गैरिक, रसौत, सैंधव, मधु आदि।
    • Pharmacodynamics (External - Eye): गैरिक (चक्षुष्य, शीत), रसौत (लेखन, रोपण), सैंधव (लेखन)। यह अंजन (Collyrium) नेत्रों का शोधन कर, शोथ और दाह को कम करता है।
    • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग (नेत्रों में)** - नेत्र शोथ (Conjunctivitis), नेत्र दाह, अभिष्यंद।
    • प्रयोग विधि: गुटिका को जल या मधु में घिसकर अंजन शलाका से नेत्रों में लगाना।

    ५. गैरिक रसक्रिया (Gairika Rasakriya)

    • सन्दर्भ: चरक संहिता, चिकित्सास्थान २६/२३५ (त्रिमर्मीय अध्याय)।
    • निर्माण: गैरिक को क्वाथ आदि में पकाकर गाढ़ा (Semi-solid) करना।
    • Pharmacodynamics: शीत, रक्तस्तम्भन, छर्दिनिग्रहण।
    • मुख्य संकेत (Indications): हिक्का (Hiccup), छर्दि, रक्तपित्त।
    • मात्रा (Matra): चिकित्सक निर्देशानुसार।
    • अनुपान (Anupana): मधु।

    ६. वर्णकर लेप (Varnakara Lepa)

    • सन्दर्भ: चरक संहिता, चिकित्सास्थान २५/११७ (व्रण चिकित्सा)।
    • प्रमुख घटक: गैरिक, मञ्जिष्ठा, चन्दन, सारिवा आदि वर्ण्य (Complexion improving) द्रव्य।
    • Pharmacodynamics (External): शीत, वर्ण्य, दाहप्रशमन, व्रण रोपण।
    • मुख्य संकेत (Indications): **केवल बाह्य प्रयोग** - व्रण के निशान (Scars), मुख दूषिका (Acne), त्वचा का वर्ण सुधारने हेतु (Complexion improvement)।
    • प्रयोग विधि: जल या दुग्ध में मिलाकर लेप।

    गैरिक प्रयोग: सामान्य पथ्य-अपथ्य (Pathyapathya)

    • पथ्य (Compatible): लघु भोजन, मधुर-तिक्त-कषाय रस प्रधान आहार। दुग्ध, घृत।
    • अपथ्य (Incompatible): अत्यधिक अम्ल, लवण, कटु रस। उष्ण, तीक्ष्ण, विदाही भोजन।

    Research Updates:

    Research on Gairika (Hematite/Red Ochre) primarily focuses on its traditional uses and chemical composition. Studies confirm its high iron content. Its use in formulations like Laghusutshekhar Rasa for hyperacidity is clinically well-established in Ayurvedic practice. Its astringent (Kashaya) and cooling (Shita) properties are utilized in external applications (Lepas, Malaharas) for skin inflammation and wound healing, although large-scale modern clinical trials are less common compared to herbal drugs.

    About the Author: Sparsh Varshney

    Sparsh Varshney is a BAMS (Bachelor of Ayurvedic Medicine and Surgery) student and the founder of AmidhaAyurveda.com. His mission is to share the deep and timeless wisdom of Ayurveda in an accessible and practical way, empowering people to reclaim their health naturally.

    Disclaimer: This article is for educational purposes only, intended for BAMS students. This information is based on Ayurvedic Samhitas and textbooks. For any medical advice or treatment, always consult a qualified Ayurvedic practitioner.

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