अध्याय ३: आधारभूत सिद्धान्त (Fundamental Principles)
रसशास्त्र एवं भैषज्यकल्पना विषय में औषध निर्माण की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन है। किसी भी औषध का निर्माण 'द्रव्य' से शुरू होता है। अतः, उत्तम औषध के निर्माण के लिए उत्तम द्रव्य का चयन, उसका संग्रह, संरक्षण, और उसे रोगी को देने की विधि, इन सभी के मूलभूत सिद्धांतों का ज्ञान होना अनिवार्य है। यह अध्याय इन्हीं आधारभूत सिद्धांतों पर प्रकाश डालता है।
अध्याय सार (Chapter in Brief)
- द्रव्य संग्रह: औषध निर्माण का प्रथम चरण। इसमें योग्य द्रव्य का सही समय, स्थान और विधि से संग्रह किया जाता है।
- संग्रह काल: वीर्य की प्रधानता के लिए द्रव्य के विशिष्ट अंग (मूल, पत्र, त्वक्) का विशिष्ट ऋतु में संग्रह करना चाहिए।
- संरक्षण: संग्रह के बाद द्रव्य के गुणों को बनाए रखने के लिए उसे सुखाना और उचित पात्रों में रखना 'संरक्षण' है।
- औषध सेवन काल: रोग और दोष की अवस्था के अनुसार दवा देने के 10 विभिन्न काल (जैसे - अभक्त, प्राग्भक्त) होते हैं।
- सावीर्यता अवधि: प्रत्येक कल्पना (चूर्ण, वटी, आसव) की एक निश्चित 'Shelf Life' होती है, जिसके बाद उसका वीर्य क्षीण हो जाता है।
- अनुपान: दवा के साथ या बाद में लिया जाने वाला वह पदार्थ जो दवा के अवशोषण और प्रभाव (Action) को बढ़ाए।
द्रव्य संग्रह एवं संरक्षण (Drug Collection & Preservation)
औषध का प्रभाव उसके 'वीर्य' पर निर्भर करता है, और द्रव्य का वीर्य उसके संग्रह काल, स्थान और विधि पर निर्भर करता है।
द्रव्य संग्रह काल (Time of Drug Collection)
1. सामान्य नियम (ऋतु अनुसार)
सामान्यतः, औषधीय पौधे का संग्रह तब करना चाहिए जब वह पूर्ण रस, वीर्य और गंध से युक्त हो। वीर्य की प्रधानता के लिए, द्रव्यों का संग्रह **शरद ऋतु** में किया जाना श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इस समय सोम (Soma) गुण की अधिकता होती है।
औषधीनां परा भूमिश्चन्द्रमाः पतिरुच्यते।
            स ताः कालेऽभिवर्षेण रसेनौषधिसम्भृताः॥
अर्थात्: औषधियों का श्रेष्ठ स्थान भूमि है और उनका पति (पोषक) चन्द्रमा है। चन्द्रमा अपनी किरणों (सोम) से उन्हें रस और वीर्य से परिपूर्ण करता है।
2. प्रयोज्यांग (Part Used) के अनुसार संग्रह काल
वीर्य (Potency) पौधे के विभिन्न भागों में विभिन्न ऋतुओं में केंद्रित होता है।
| प्रयोज्यांग (Plant Part) | संग्रह काल (ऋतु) | कारण | 
|---|---|---|
| मूल (Root) | ग्रीष्म या शिशिर ऋतु | इस समय पौधे का ऊपरी भाग सूख जाता है और सारा वीर्य (रस) मूल में संचित हो जाता है। | 
| पत्र (Leaves) | वर्षा या वसंत ऋतु | इस समय नए और पूर्ण रसयुक्त पत्ते निकलते हैं। | 
| त्वक् (Bark), कन्द (Rhizome) | शरद ऋतु | इस समय वीर्य इन अंगों में स्थिर होता है। | 
| पुष्प (Flower) | जिस ऋतु में वे खिलते हैं (यथाऋतु) | खिलने के समय वे पूर्ण रस, गंध और वीर्य से युक्त होते हैं। | 
| फल (Fruit) | जिस ऋतु में वे पकते हैं (यथाऋतु) | पकने पर ही वे पूर्ण गुणवान होते हैं (जैसे - हरीतकी)। | 
| पंचांग (Whole Plant) | शरद ऋतु (या वर्षा/वसंत) | इस समय पौधा मूल, पत्र, पुष्प आदि सभी गुणों से युक्त होता है। | 
3. दिन के अनुसार संग्रह काल (Time of the Day)
औषधियों का संग्रह **पुष्य, अश्विनी या मृगशिरा नक्षत्र** में, शुभ दिन पर, **उत्तर दिशा (North)** की ओर मुख करके, मंत्रोच्चार के साथ करना चाहिए।
4. प्राणिज द्रव्य संग्रह (Collection of Pranija Dravya)
जैसे - मधु (Honey) का संग्रह वसंत ऋतु में, मृगनाभि (Kasturi) का संग्रह स्वस्थ और वयस्क मृग से, तथा गोरोचन का संग्रह मृत गाय से किया जाना चाहिए।
द्रव्य संग्रह स्थान (Place of Drug Collection)
द्रव्य का गुण उसकी भूमि (मिट्टी) पर निर्भर करता है। जिस महाभूत प्रधान भूमि में द्रव्य उत्पन्न होता है, उसमें वे गुण प्राकृतिक रूप से अधिक होते हैं।
- पार्थिव द्रव्य (Earth dominant): गुरु, स्थिर, कठिन द्रव्य (जैसे - शालपर्णी)।
- जलीय द्रव्य (Water dominant): स्निग्ध, शीत, मृदु द्रव्य (जैसे - शतावरी)।
- आग्नेय द्रव्य (Fire dominant): उष्ण, तीक्ष्ण, रूक्ष द्रव्य (जैसे - चित्रक, भल्लातक)।
- वायव्य द्रव्य (Air dominant): लघु, रूक्ष, विशद द्रव्य (जैसे - शिरीष)।
- आकाशीय द्रव्य (Ether dominant): लघु, सूक्ष्म, मृदु द्रव्य (जैसे - विभितकी)।
अग्राह्य स्थान (Places from where drugs should not be collected)
निम्नलिखित स्थानों से औषध द्रव्यों का संग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे वीर्यहीन या दूषित होते हैं:
- श्मशान (श्मशान भूमि)
- वल्मीक (दीमक की बांबी)
- मार्ग (रास्ते के किनारे)
- ऊषर भूमि (बंजर, खारी मिट्टी)
- जंतु, अग्नि, या जल से दूषित स्थान
- कृमि (कीड़े) लगे हुए पौधे
द्रव्य संग्रह विधि एवं संरक्षण (Collection Method & Preservation)
संग्रह अवस्था (Stage of drug collection)
द्रव्य को उचित अवस्था में ही संग्रह करना चाहिए - न तो अपरिपक्व (Immature) और न ही अतिपक्व (Over-mature)।
द्विगुण मान गणना (Rule of Duplication)
यह सिद्धांत कहता है कि यदि किसी योग में किसी द्रव्य के 'मूल' का निर्देश हो और मूल अप्राप्य हो, तो उसके स्थान पर 'पंचांग' का **दोगुना (Double)** भाग लेना चाहिए। (यह नियम विवादास्पद है और विशिष्ट योगों पर ही लागू होता है।)
आर्द्र एवं शुष्क द्रव्य मान (Weight of Fresh and Dry Herbs)
यदि किसी योग में द्रव्य के 'आर्द्र' (Fresh) या 'शुष्क' (Dry) होने का उल्लेख न हो, तो सामान्य नियम के अनुसार **शुष्क द्रव्य** ही लेना चाहिए।
यदि 'आर्द्र' द्रव्य लेने का निर्देश हो (जैसे - स्वरस के लिए), तो शुष्क द्रव्य की अपेक्षा **दोगुनी (Double)** मात्रा में आर्द्र द्रव्य लेना चाहिए। (अपवाद: कुटज, गिलोय, शतावरी, वासा, कूष्माण्ड - ये आर्द्र अवस्था में ही श्रेष्ठ माने जाते हैं)।
द्रव्य संरक्षण (Dravya Samrakshana)
संग्रह के बाद, द्रव्य के वीर्य को बनाए रखने के लिए संरक्षण अनिवार्य है:
- स्वच्छता: द्रव्य को जल से धोकर मिट्टी, कृमि आदि हटा दें।
- शुष्कन (Drying): द्रव्य को छाया में (छायाशुष्क) सुखाना चाहिए। तीक्ष्ण, उष्ण वीर्य द्रव्यों को धूप में सुखाया जा सकता है।
- पात्र (Storage): सूखे द्रव्यों को वायुरोधी (Airtight), स्वच्छ पात्रों में, नमी और प्रकाश से दूर, ठंडे स्थान पर रखना चाहिए।
- लेबलिंग: पात्र पर द्रव्य का नाम, संग्रह तिथि और सावीर्यता अवधि अवश्य लिखनी चाहिए।
औषध निर्माण एवं प्रयोग के सिद्धांत
अनुकत द्रव्य ग्रहण (Principle of Substitution/Analogy)
यदि किसी योग में निर्दिष्ट द्रव्य (Specified drug) न मिले, तो उसके स्थान पर समान रस, गुण, वीर्य, विपाक और प्रभाव वाले 'प्रतिनिधि द्रव्य' (Substitute drug) का प्रयोग किया जा सकता है।
विशेषोक्त ग्रहण: यदि किसी द्रव्य के विशिष्ट अंग (जैसे - मूल) का उल्लेख न हो, तो 'मूल' ही ग्रहण करना चाहिए। (यह मत सुश्रुत का है, जबकि चरक 'पंचांग' मानते हैं)।
औषध नामकरण (Naming a Preparation)
औषधीय योगों का नामकरण प्रायः निम्न आधारों पर किया जाता है:
- प्रमुख द्रव्य के नाम पर: जैसे - `अश्वगंधारिष्ट`, `चित्रकादि वटी`।
- प्रमुख कर्म के नाम पर: जैसे - `कृमिमुद्गर रस`, `ज्वरांकुश रस`।
- निर्माता (आचार्य) के नाम पर: जैसे - `अगस्त्य हरीतकी`।
- स्वरूप या आकार पर: जैसे - `चन्द्रप्रभा वटी`, `शंख वटी`।
औषध सेवन काल (Time of Drug Administration)
दोषों की स्थिति, अग्निबल और रोग के स्थान के आधार पर औषध सेवन के 10 काल (आचार्य चरक/सुश्रुत) या 11 काल (आचार्य वाग्भट) माने गए हैं।
| सेवन काल | समय | मुख्य प्रभाव (दोष) | उदाहरण | 
|---|---|---|---|
| 1. अभक्त (खाली पेट) | प्रातः काल, बिना कुछ खाए | बलवान रोगी, कफ वृद्धि | लेखन, भेदन कर्म हेतु | 
| 2. प्राग्भक्त (भोजन पूर्व) | भोजन से ठीक पहले | अपान वायु विकृति (कब्ज) | पाचन और दीपन हेतु | 
| 3. मध्यभक्त (भोजन के मध्य) | आधा भोजन करने के बाद | समान वायु विकृति, पित्त रोग | अग्निमांद्य, ग्रहणी | 
| 4. अधोभक्त (भोजन के बाद) | भोजन के तुरंत बाद (दोपहर/शाम) | व्यान वायु (दोपहर), उदान वायु (शाम) | बृंहण, शरीर के ऊपरी भाग के रोग | 
| 5. समुद्ग (भोजन के पहले और बाद) | भोजन के प्रारंभ और अंत में | हिक्का, कंपवात (Tremors) | वमन रोकने हेतु | 
| 6. मुहुर्मुहुः (बार-बार) | थोड़ी-थोड़ी मात्रा में बार-बार | श्वास, कास, तृष्णा, विष | श्वास कुठार रस | 
| 7. सान्न (भोजन के साथ) | औषध को भोजन में मिलाकर | अरुचि, दुर्बल रोगी, बालक | चूर्ण, घृत | 
| 8. ग्रास (कौर के साथ) | भोजन के प्रत्येक कौर के साथ | प्राण वायु विकृति | वाजीकरण योग | 
| 9. ग्रासान्तर (कौर के बीच) | दो कौर के बीच में | हृदय रोग, प्राण वायु | हृद्य औषधियां | 
| 10. निशि (रात्रि में) | सोते समय | ऊर्ध्वजत्रुगत (ENT) रोग | त्रिफला (नेत्र रोग में) | 
सावीर्यता अवधि (Shelf Life of Kalpana)
प्रत्येक औषध कल्पना की एक निश्चित अवधि होती है, जिसके बाद उसका वीर्य (Potency) क्षीण हो जाता है। यह अवधि 'द्रव्यगुण सिद्धांत' पर आधारित है।
सावीर्यता अवधि (शारंगधर संहिता के अनुसार)
| कल्पना (Formulation) | सावीर्यता अवधि (Shelf Life) | 
|---|---|
| स्वरस, कल्क, क्वाथ | ताजा (सद्यः सेवनीय), अधिकतम 24 घंटे (1 दिन-रात) | 
| चूर्ण (Churna) | 2 मास (Months) | 
| वटी / गुटिका (Vati) | 1 वर्ष (Year) | 
| घृत एवं तैल (Ghrita, Taila) | 16 मास (Months) | 
| अवलेह (Avaleha) | 1 वर्ष (Year) | 
| गुग्गुलु (Guggulu) | 2 वर्ष (Years) | 
| आसव-अरिष्ट (Asava-Arishta) | चिरकाल (Indefinite) - जितने पुराने हों, उतने अच्छे। | 
| रसौषधि (Rasa Aushadhi) | अक्षय (Eternal) - कभी नष्ट नहीं होते। | 
नोट: आधुनिक 'Drug and Cosmetics Act' के अनुसार, अधिकांश चूर्ण, वटी आदि की Shelf Life 2-3 वर्ष निर्धारित की गई है, जो पैकिंग पर निर्भर करती है।
औषध मात्रा (Dosage / Posology)
औषध की 'मात्रा' का निर्धारण केवल रोग के आधार पर नहीं, बल्कि रोगी के कई कारकों पर निर्भर करता है:
- अग्निबल (Digestive Power): सबसे महत्वपूर्ण। जिसकी अग्नि प्रबल है, वह अधिक मात्रा सहन कर सकता है।
- बल (Strength): रोगी और रोग का बल।
- वय (Age): बालक, युवा, वृद्ध।
- कोष्ठ (Bowel Habits): क्रूर कोष्ठ (Hard) में अधिक मात्रा, मृदु कोष्ठ (Soft) में कम मात्रा।
- दोष, देश, काल, प्रकृति आदि।
यदि मात्रा का उल्लेख न हो, तो चूर्ण की सामान्य मात्रा 1 कर्ष (12 ग्राम) और क्वाथ की मात्रा 2 पल (96 ml) मानी जाती है (यह प्राचीन मान है, वर्तमान में चिकित्सक द्वारा निर्धारित किया जाता है)।
अनुपान एवं सहपान (Adjuvant & Vehicle)
अनुपान (Anupana)
वह द्रव्य जो औषध सेवन के **बाद** पिया जाता है।
यद् द्रव्यं सगुणं भूयः कल्प्यते भैषजाद् बहिः।
            तदनुपानं...॥
- कार्य: औषध के अवशोषण (Absorption) को बढ़ाना, उसके वीर्य को तीव्र करना, उसे गंतव्य (Target organ) तक पहुँचाना, और अरुचि को दूर करना।
- उदाहरण: वात रोगों में उष्ण जल; पित्त रोगों में शीतल जल या दुग्ध; कफ रोगों में मधु।
सहपान (Sahapana)
वह द्रव्य जिसे औषध के **साथ** मिलाकर (जैसे - चूर्ण को मधु के साथ मिलाकर) सेवन किया जाता है। इसका उद्देश्य भी लगभग अनुपान जैसा ही होता है।
यौगिक द्रव्य सिद्धांत (Drug Combination)
आयुर्वेद में एकल द्रव्य (Single drug) की अपेक्षा 'योग' (Combination) का अधिक प्रयोग होता है।
- उद्देश्य:
                - Synergism: एक से अधिक द्रव्य मिलकर मुख्य द्रव्य के कर्म को बढ़ाते हैं (जैसे - त्रिकटु)।
- Side-effect Neutralization: एक द्रव्य दूसरे के अहितकर प्रभाव को कम करता है (जैसे - भल्लातक योगों में घृत मिलाना)।
- Multi-target Action: योग के विभिन्न द्रव्य विभिन्न दोषों या स्रोतों पर एक साथ काम करते हैं।
 
परीक्षा-उपयोगी प्रश्न (Exam-Oriented Questions)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (10 Marks Questions)
- द्रव्य संग्रह के सामान्य एवं विशिष्ट नियमों का विस्तार से वर्णन करें। प्रयोज्यांग के अनुसार विभिन्न ऋतुओं में संग्रह काल की विवेचना करें।
- औषध सेवन काल से आप क्या समझते हैं? विभिन्न औषध सेवन कालों का दोषों पर प्रभाव और उपयोगिता का सोदाहरण वर्णन करें।
- सावीर्यता अवधि (Shelf Life) को परिभाषित करें। शारंगधर के अनुसार विभिन्न कल्पनाओं की सावीर्यता अवधि का वर्णन करें।
- अनुपान एवं सहपान को परिभाषित करें और उनके कार्यों और महत्व को समझाएं।
लघु उत्तरीय प्रश्न (5 Marks Questions)
- द्रव्य संग्रह के लिए अग्राह्य स्थान (स्थान जहाँ से संग्रह नहीं करना चाहिए) कौन से हैं?
- द्रव्य संरक्षण (Preservation) की विधि संक्षेप में लिखें।
- आर्द्र एवं शुष्क द्रव्य मान का नियम सोदाहरण स्पष्ट करें।
- औषध नामकरण के सिद्धांतों को समझाएं।
- औषध मात्रा के निर्धारण में किन-किन कारकों का ध्यान रखा जाता है?
- यौगिक द्रव्य सिद्धांत (Principles of Drug Combination) को संक्षेप में समझाएं।
- 'अभक्त', 'प्राग्भक्त', 'अधोभक्त' और 'मुहुर्मुहुः' सेवन काल को समझाएं।
अति लघु उत्तरीय प्रश्न (2 Marks Questions)
- द्रव्य संग्रह हेतु श्रेष्ठ ऋतु कौन सी है? (शरद)
- मूल (Root) का संग्रह किस ऋतु में करना चाहिए? (ग्रीष्म/शिशिर)
- पत्र (Leaves) का संग्रह किस ऋतु में करना चाहिए? (वर्षा/वसंत)
- आर्द्र द्रव्य की मात्रा शुष्क द्रव्य से कितनी लेनी चाहिए? (दोगुनी)
- चूर्ण की सावीर्यता अवधि (शारंगधर) बताएं। (2 मास)
- आसव-अरिष्ट की सावीर्यता अवधि बताएं। (चिरकाल/Indefinite)
- औषध सेवन के बाद पिए जाने वाले द्रव्य को क्या कहते हैं? (अनुपान)
- कफ रोगों में श्रेष्ठ अनुपान क्या है? (मधु)
- श्वास-कास में कौन सा औषध सेवन काल उपयोगी है? (मुहुर्मुहुः)
- अपान वायु विकृति में कौन सा काल उपयोगी है? (प्राग्भक्त)
 
 
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