अध्याय १: औषध प्रयोग विज्ञान (Aushadhi Prayoga Vigyana)
भैषज्यकल्पना का द्वितीय प्रश्नपत्र 'औषध प्रयोग विज्ञान' पर केंद्रित है, जिसे आधुनिक शब्दावली में 'फार्माको-थेराप्यूटिक्स' (Pharmaco-therapeutics) कहा जा सकता है। यह वह विज्ञान है जो द्रव्यगुण (औषध को जानना) और चिकित्सा (रोग का उपचार) के बीच सेतु का काम करता है। इसमें केवल यह नहीं पढ़ा जाता कि 'औषध क्या है', बल्कि यह पढ़ा जाता है कि 'औषध का प्रयोग कैसे करें'।
अध्याय सार (Chapter in Brief)
- औषध प्रयोग विज्ञान: वह विज्ञान जो रोग और रोगी की अवस्था के अनुसार औषध के सम्यक् (उचित) प्रयोग (मात्रा, काल, अनुपान) का ज्ञान कराता है।
- व्युत्पत्ति: औषध (Oshadha - जो वीर्य धारण करे) + प्रयोग (Prayoga - उपयोग) + विज्ञान (Vigyana - विशिष्ट ज्ञान)।
- क्षेत्र (Scope): द्रव्यगुण और चिकित्सा के बीच का व्यावहारिक (Practical) ज्ञान। इसमें औषध की मात्रा, कल्पना, सेवन काल, और अनुपान का निर्धारण शामिल है।
- प्रशस्त भेषज लक्षण: एक आदर्श औषध के गुण, जैसा कि आचार्य चरक ने बताया है: बहुकल्प, बहुगुण, सम्पन्न, और योग्य।
औषध प्रयोग विज्ञान: परिचय, व्युत्पत्ति एवं क्षेत्र
1. व्युत्पत्ति (Etymology)
यह विषय तीन शब्दों से मिलकर बना है:
- औषध (Aushadha):
                ओषं धयति इति औषधम्। 
 (अथवा) ओषधीभ्यो जातम् इति औषधम्।अर्थात्: 'ओष' का अर्थ है तेज, ऊर्जा, या वीर्य; 'धि' का अर्थ है धारण करना। जो द्रव्य अपने भीतर रोग को नष्ट करने की ऊर्जा या वीर्य को धारण करता है, वह 'औषध' है। अथवा, जो 'ओषधि' (वनस्पतियों) से प्राप्त हो, वह औषध है। 
- प्रयोग (Prayoga): इसका अर्थ है 'व्यावहारिक उपयोग' (Practical Application) या 'प्रशासन' (Administration)।
- विज्ञान (Vigyana): किसी विषय का विशिष्ट, व्यवस्थित और तार्किक ज्ञान (Specific and systematic knowledge)।
निष्कर्ष: इस प्रकार, **औषध प्रयोग विज्ञान** का अर्थ है "औषधियों के सम्यक् (उचित) एवं तार्किक प्रयोग का विशिष्ट ज्ञान"।
2. परिचय एवं परिभाषा (Introduction & Definition)
द्रव्यगुण विज्ञान हमें द्रव्य के रस-पंचक (रस, गुण, वीर्य, विपाक, प्रभाव) का ज्ञान कराता है। कायचिकित्सा हमें रोग के निदान-पंचक (निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय, संप्राप्ति) का ज्ञान कराती है।
औषध प्रयोग विज्ञान (Pharmacotherapeutics) वह विज्ञान है जो इन दोनों ज्ञानों को जोड़ता है। यह सिखाता है कि किसी विशिष्ट रोग की विशिष्ट अवस्था में, विशिष्ट रोगी पर, किस द्रव्य को, किस कल्पना (Formulation) में, किस मात्रा (Dose) में, किस अनुपान (Vehicle) के साथ, और किस काल (Time) में देना चाहिए ताकि 'सम्यक् योग' (Ideal therapeutic effect) प्राप्त हो सके।
3. औषध प्रयोग विज्ञान का क्षेत्र (Scope of Aushadhi Prayoga Vigyana)
इस विज्ञान का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है और चिकित्सा की सफलता इसी पर निर्भर करती है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित विषयों का अध्ययन किया जाता है:
- कल्पना का चयन (Choice of Formulation): रोग और रोगी के बल के अनुसार यह निर्णय लेना कि चूर्ण, वटी, घृत, आसव या भस्म में से कौन सी कल्पना सबसे उपयुक्त होगी। (जैसे - अग्निमांद्य में चूर्ण या अरिष्ट, जबकि क्षीण रोगी के लिए घृत)।
- मात्रा निर्धारण (Dosage - Posology): अध्याय ३ में वर्णित सिद्धांतों (अग्नि, बल, वय, कोष्ठ) के आधार पर औषध की सही मात्रा निर्धारित करना।
- अनुपान एवं सहपान का चयन (Choice of Adjuvant): औषध के प्रभाव को बढ़ाने (Synergistic effect), अवशोषण (Absorption) को तीव्र करने, या दुष्प्रभावों (Side-effects) को कम करने के लिए सही अनुपान (जैसे - मधु, घृत, उष्ण जल) का चयन करना।
- औषध सेवन काल का निर्धारण (Timing of Administration): अध्याय ३ में वर्णित १० सेवन कालों (अभक्त, प्राग्भक्त आदि) में से दोष और रोग की स्थिति के अनुसार सही काल का चयन करना।
- द्रव्यों का एकत्रीकरण (Drug Combination): यह समझना कि किन द्रव्यों को एक साथ मिलाकर 'यौगिक' (Compound formulation) बनाने से उनका प्रभाव बढ़ता है (यौगिक द्रव्य सिद्धांत)।
- औषध-आहार विरुद्धता (Drug-Food Interaction): चिकित्सा के दौरान रोगी को क्या पथ्य (Compatible diet) और क्या अपथ्य (Incompatible diet) है, इसका निर्देश देना।
संक्षेप में, इसका क्षेत्र 'द्रव्य' को 'भेषज' (Medicine) में परिवर्तित करने की पूर्ण तार्किक प्रक्रिया है।
प्रशस्त भेषज लक्षण (Characteristics of an Ideal Drug)
एक चिकित्सक को औषध का प्रयोग करने से पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह औषध 'प्रशस्त' (Ideal / Excellent) है। यदि औषध स्वयं उत्तम नहीं होगी, तो उसका प्रयोग विफल हो जायेगा।
आचार्य चरक (सूत्रस्थान ९, चतुष्पाद अध्याय) ने श्रेष्ठ या प्रशस्त भेषज के चार लक्षण बताये हैं:
बहुकल्पं बहुगुणं सम्पन्नं योग्यमौरसम्।
            औषधं प्रशस्तमिति...॥
एक प्रशस्त (आदर्श) औषध में निम्नलिखित चार गुण होने चाहिए:
1. बहुकल्पं (Bahukalpam - Pharmaceutically Versatile)
- अर्थ: "जिसकी बहुत सी कल्पनाएं (Formulations) बनाई जा सकें।"
- व्याख्या: एक आदर्श द्रव्य वह है जिसे रोगी की आवश्यकता और रोग की अवस्था के अनुसार विभिन्न रूपों (स्वरस, कल्क, चूर्ण, क्वाथ, वटी, घृत, आसव आदि) में परिवर्तित किया जा सके।
- उदाहरण: **हरीतकी (Haritaki)**। हरीतकी का प्रयोग चूर्ण, वटी (पथ्यादि वटी), अवलेह (अगस्त्य हरीतकी), और अरिष्ट (अभयारिष्ट) के रूप में किया जा सकता है। यह गुण द्रव्य को 'Versatile' बनाता है।
2. बहुगुणं (Bahugunam - Polyvalent / Multi-faceted)
- अर्थ: "जो बहुत से गुणों से युक्त हो।"
- व्याख्या: 'गुण' से तात्पर्य यहाँ द्रव्य के रस-पंचक (विशेषकर गुण और कर्म) से है। एक आदर्श द्रव्य वह है जो एक ही समय में अनेक गुणों (जैसे - लघु, रूक्ष) से युक्त हो और अनेक कर्म (जैसे - दीपन, पाचन, लेखन) करता हो।
- उदाहरण: **गुग्गुलु (Guggulu)**। यह तिक्त-कटु-कषाय रस, लघु-रूक्ष गुण, उष्ण वीर्य और कटु विपाक वाला है। इन गुणों के कारण यह त्रिदोषहर (विशेषतः वात-कफ शामक), मेदोहर, लेखन, शोथहर (Anti-inflammatory), और वेदनास्थापन (Analgesic) जैसे अनेक कर्म करता है।
3. सम्पन्नं (Sampannam - Potent / Well-Endowed)
- अर्थ: "जो सम्पन्न हो" (Rich / Endowed)।
- व्याख्या: 'सम्पन्न' होने का अर्थ है कि द्रव्य अपने सभी प्राकृतिक गुणों (रस, वीर्य, विपाक आदि) से परिपूर्ण हो। यह तभी संभव है जब:
                - द्रव्य को 'प्रशस्त भूमि' (Ideal soil/habitat) से प्राप्त किया गया हो।
- उसे 'उचित काल' (सही ऋतु और समय) में संग्रह किया गया हो।
- वह 'अविकृत' (Unadulterated), 'अजीर्ण' (Not old), और वीर्यवान हो।
 
- उदाहरण: शरद ऋतु में संगृहीत, पुष्ट, और कीड़ों से रहित 'आमलकी' (Amla) ही 'सम्पन्न' कहलाएगी।
4. योग्यं (Yogyam - Appropriate / Suitable)
- अर्थ: "जो योग्य हो।"
- व्याख्या: यह औषध का सबसे महत्वपूर्ण गुण है। द्रव्य कितना भी 'बहुकल्प', 'बहुगुण', और 'सम्पन्न' क्यों न हो, यदि वह उस विशिष्ट रोग (Vyadhi) और रोगी (Rogi) के लिए 'योग्य' (Suitable) नहीं है, तो वह व्यर्थ है।
- उदाहरण: 'मरिच' (Black Pepper) एक उत्तम दीपन-पाचन द्रव्य (बहुगुण, सम्पन्न) है, लेकिन यदि उसे 'पित्त प्रकृति' के रोगी को 'अम्लपित्त' (Acidity) रोग में दिया जाये, तो वह 'अयोग्य' (Unsuitable) है और रोग को बढ़ा देगी।
- 'योग्य' होने का अर्थ है कि औषध रोग की संप्राप्ति को भंग (Disease pathogenesis) करने में सक्षम हो और रोगी की प्रकृति के अनुकूल (Compatible) हो।
'औरसम्' (Aurasam)
कुछ टीकाकार श्लोक में 'योग्यमौरसम्' को 'योग्यम्' और 'औरसम्' दो अलग गुण मानते हैं।
- औरसम् (Aurasam): इसका एक अर्थ 'प्रशस्त देशे जातं' अर्थात् 'अपने प्राकृतिक और आदर्श स्थान पर उत्पन्न' (Native to its ideal habitat) लिया जाता है। जो द्रव्य अपने प्राकृतिक स्थान पर उगता है, वह सर्वाधिक वीर्यवान होता है। इस व्याख्या के अनुसार, 'औरसम्' को 'सम्पन्नं' गुण का ही एक हिस्सा माना जा सकता है।
परीक्षा-उपयोगी प्रश्न (Exam-Oriented Questions)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (10 Marks Questions)
- 'औषध प्रयोग विज्ञान' की व्युत्पत्ति, परिभाषा और क्षेत्र (Scope) का सविस्तार वर्णन करें।
- 'प्रशस्त भेषज' के लक्षणों का श्लोक सहित सविस्तार वर्णन करें। 'बहुकल्पं' और 'योग्यं' से आप क्या समझते हैं?
लघु उत्तरीय प्रश्न (5 Marks Questions)
- प्रशस्त भेषज के चार लक्षण श्लोक सहित लिखें।
- 'बहुगुणं' और 'सम्पन्नं' लक्षण को सोदाहरण स्पष्ट करें।
- औषध प्रयोग विज्ञान का क्षेत्र (Scope) क्या है?
- औषध शब्द की व्युत्पत्ति और परिभाषा लिखें।
अति लघु उत्तरीय प्रश्न (2 Marks Questions)
- प्रशस्त भेषज के चार लक्षण क्या हैं? (नाम लिखें)
- चरक (च.सू. ९/६) का प्रशस्त भेषज का श्लोक लिखें।
- 'बहुकल्पं' का क्या अर्थ है?
- 'योग्यं' से आप क्या समझते हैं?
- 'सम्पन्नं' भेषज का क्या अर्थ है?
 
 
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