गुण (Guna) - द्रव्यगुण विज्ञान नोट्स
यह लेख BAMS द्वितीय वर्ष के द्रव्यगुण विज्ञान विषय के अंतर्गत **'गुण'** अध्याय पर केंद्रित है। द्रव्य के बाद गुण दूसरा महत्वपूर्ण पदार्थ है। यह अध्याय गुणों की परिभाषा, उनके वर्गीकरण (विशेषकर गुर्वादि और परादि गुण), और उनके चिकित्सीय महत्व को विस्तार से समझाएगा।
अध्याय सार (Chapter in Brief)
- गुण परिभाषा: गुण द्रव्य में समवाय संबंध से रहता है, स्वयं चेष्टा रहित (निष्क्रिय) होता है, किन्तु कर्म का कारण बनता है।
- वर्गीकरण: गुणों को मुख्यतः वैशेषिक गुण (5), सामान्य गुण [आध्यात्मिक (6), गुर्वादि (20), परादि (10)] में वर्गीकृत किया गया है। कुल 41 गुण।
- गुर्वादि गुण (20): चिकित्सा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण, 10 द्वंद्व (जोड़े) में होते हैं (गुरु-लघु, शीत-उष्ण आदि)। ये शारीरिक क्रियाओं और औषध कर्मों को सीधे प्रभावित करते हैं।
- परादि गुण (10): चिकित्सा और औषध चयन में सहायक गुण (परत्व, अपरत्व, युक्ति, संख्या, संयोग, विभाग, पृथकत्व, परिमाण, संस्कार, अभ्यास)।
- चिकित्सीय महत्व: गुणों के ज्ञान से ही द्रव्य के शरीर पर होने वाले प्रभाव (कर्म) का अनुमान लगाया जाता है और चिकित्सा में 'सामान्य-विशेष सिद्धांत' का प्रयोग किया जाता है।
गुण (Guna - The Property/Quality)
द्रव्यगुण विज्ञान और वैशेषिक दर्शन में 'गुण' एक अत्यंत महत्वपूर्ण पदार्थ है। यह द्रव्य का अविभाज्य अंग है और द्रव्य के अस्तित्व तथा कर्म का आधार है। गुण स्वयं क्रिया नहीं करते, परन्तु द्रव्य को क्रिया करने की क्षमता प्रदान करते हैं।
गुण की परिभाषा (Definition of Guna)
आचार्य चरक गुण को परिभाषित करते हुए कहते हैं:
समवायि तु निश्चेष्टः कारणं गुणः॥
(चरक संहिता, सूत्रस्थान १/५१)व्याख्या:
जो द्रव्य में **समवायि** सम्बन्ध (Inseparable inherence) से रहता है, स्वयं **निश्चेष्ट** (Inactive/Inert, क्रिया रहित) होता है, (किन्तु द्रव्य के) कर्म का **कारण** होता है, वह 'गुण' है।
- समवायि सम्बन्ध: गुण हमेशा द्रव्य में ही रहता है, द्रव्य से अलग उसका कोई अस्तित्व नहीं है।
- निश्चेष्ट: गुण स्वयं कोई क्रिया नहीं करता, बल्कि द्रव्य गुण के माध्यम से क्रिया करता है।
- कारण: गुण ही द्रव्य के विशिष्ट कर्म का कारण बनता है।
आचार्य शारंगधर ने भी कहा है - "द्रव्याश्रिता निर्गुणा निष्क्रियश्च गुणाः स्मृताः"।
गुणों का वर्गीकरण (Classification of Gunas)
आयुर्वेदिक संहिताओं और दर्शनों में गुणों का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया गया है। कुल मिलाकर 41 गुणों का वर्णन मिलता है, जिन्हें मुख्यतः निम्न समूहों में बांटा गया है:
A. वैशेषिक गुण / इन्द्रियार्थ / अर्थ (Vaisheshika/Indriyartha/Artha - 5):
ये गुण पंचमहाभूतों और पंच ज्ञानेन्द्रियों से संबंधित हैं। प्रत्येक इन्द्रिय अपने विशिष्ट गुण (अर्थ) को ही ग्रहण करती है।
| गुण (अर्थ) | संबंधित महाभूत | ग्राहक इन्द्रिय | 
|---|---|---|
| शब्द (Shabda) | आकाश | श्रोत्र (कान) | 
| स्पर्श (Sparsha) | वायु | त्वक् (त्वचा) | 
| रूप (Rupa) | अग्नि (तेज) | चक्षु (आँख) | 
| रस (Rasa) | जल (आप) | रसना (जीभ) | 
| गंध (Gandha) | पृथ्वी | घ्राण (नाक) | 
(नोट: रस को यहाँ वैशेषिक गुण माना गया है, यद्यपि द्रव्यगुण विज्ञान में सप्त पदार्थों के अंतर्गत इसका पृथक और विस्तृत अध्ययन भी किया जाता है।)
B. सामान्य गुण (Samanya Gunas - 36):
ये गुण वैशेषिक गुणों के अतिरिक्त हैं और चिकित्सा में विशेष महत्व रखते हैं। इन्हें पुनः तीन उपसमूहों में बांटा गया है:
1. गुर्वादि गुण (Gurvadi Gunas - 20):
ये शारीरिक क्रियाओं और औषध द्रव्यों के प्रभावों को समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण गुण हैं। ये 10 द्वंद्वों (विपरीत जोड़ों) में पाए जाते हैं और शरीर पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं।
गुरुमन्दहिमस्निग्धश्लक्ष्णसान्द्रमृदुस्थिराः।
            गुणाः ससूक्ष्मविशदा विंशतिः सविपर्ययाः॥
व्याख्या:
गुरु (भारी), मन्द (धीमा), हिम (शीत/ठंडा), स्निग्ध (चिकना), श्लक्ष्ण (मुलायम), सान्द्र (गाढ़ा), मृदु (नरम), स्थिर (स्थिर) - ये 8 गुण, तथा सूक्ष्म (बारीक), विशद (स्वच्छ/चिपचिपाहट रहित) - ये 2 गुण, अपने विपर्यय (विपरीत गुणों) सहित कुल 20 होते हैं।
| गुण | विपरीत गुण | प्रमुख कर्म/प्रभाव | 
|---|---|---|
| 1. गुरु (Guru - Heavy) | लघु (Laghu - Light) | बृंहण (Nourishing), बलवर्धन, तर्पण vs लंघन (Lightening), शीघ्र पाचन, शोधन | 
| 2. शीत (Shita - Cold) | उष्ण (Ushna - Hot) | स्तम्भन (Constricting), मूर्च्छा প্রশমন, प्रह्लादन vs स्वेदन (Sweating), पाचन, दाह, विलयन | 
| 3. स्निग्ध (Snigdha - Unctuous/Oily) | रूक्ष (Ruksha - Dry) | स्नेहन (Lubricating), बलवर्धन, मृदुता, क्लेदन vs शोषण (Drying), खरता (Roughness), स्तंभन | 
| 4. मन्द (Manda - Slow/Dull) | तीक्ष्ण (Tikshna - Sharp/Fast) | शमन (Pacifying), धीमा कार्य, बलवर्धन vs शोधन (Purifying), शीघ्र कार्य, भेदन, लेखन | 
| 5. स्थिर (Sthira - Stable) | चल/सर (Chala/Sara - Mobile) | धारण (Holding), स्थैर्य, बलवर्धन vs प्रेरण (Stimulating), अनुलोमन, स्रंसन | 
| 6. मृदु (Mridu - Soft) | कठिन (Kathina - Hard) | शिथिलता (Relaxation), मृदुकरण vs दृढ़ता (Firmness), बलवर्धन | 
| 7. विशद (Vishada - Clear/Non-slimy) | पिच्छिल (Picchila - Slimy/Cloudy) | क्लेद शोषण (Absorbs moisture), रोपण (Healing), व्रणशोधन vs लेपन (Coating), जीवन, बलवर्धन, संधान | 
| 8. श्लक्ष्ण (Shlakshna - Smooth) | खर (Khara - Rough) | रोपण (Healing), स्नेहन, वर्धन vs लेखन (Scraping), शोषण, व्रणोत्पादन | 
| 9. सूक्ष्म (Sukshma - Subtle/Minute) | स्थूल (Sthula - Gross/Bulky) | विवरण (Entering minute channels), स्रोतोगमन vs संवरण (Obstructing channels), स्थूलता | 
| 10. सान्द्र (Sandra - Dense/Solid) | द्रव (Drava - Liquid) | प्रसादन (Nourishing), घनता, बलवर्धन vs विलोडन (Liquefying), क्लेदन, प्रसारण | 
2. परादि गुण (Paradi Gunas - 10):
ये गुण सीधे तौर पर शारीरिक क्रियाओं को प्रभावित नहीं करते, बल्कि चिकित्सा कर्म, औषध निर्माण, चयन और प्रयोग में सहायक होते हैं। इन्हें 'चिकित्सा उपयोगी गुण' या 'वैद्यक गुण' भी कहते हैं।
परापरत्वे युक्तिश्च संख्या संयोग एव च।
             विभागश्च पृथक्त्वं च परिमाणमथापि च॥
             संस्कारोऽभ्यास इत्येते गुणा ज्ञेयाः परादयः॥
| गुण | अर्थ | चिकित्सीय उपयोगिता (उदाहरण) | 
|---|---|---|
| 1. परत्व (Paratva) | प्रधानता, श्रेष्ठता (काल, देश, मान आदि के आधार पर) | उत्तम देश/काल में उत्पन्न औषध का चयन (जैसे हिमालय की जड़ी-बूटी), मुख्य रोग की चिकित्सा पहले करना। | 
| 2. अपरत्व (Aparatva) | अप्रधानता, निकृष्टता (काल, देश, मान आदि के आधार पर) | अनुचित देश/काल की औषध का त्याग, गौण रोग की चिकित्सा बाद में करना, शीघ्रपाकी भोजन। | 
| 3. युक्ति (Yukti) | योजना (Planning), उचित मिश्रण/अनुपात, तर्कसंगत प्रयोग | दोष-दूष्य-बल-काल आदि के अनुसार औषध, मात्रा, अनुपान की योजना बनाना, अनेक द्रव्यों को मिलाकर कल्प बनाना। चिकित्सा की सफलता युक्ति पर निर्भर करती है। | 
| 4. संख्या (Sankhya) | गणना (Number), मात्रा निर्धारण | रोगों/दोषों की संख्या का ज्ञान (जैसे 80 वात रोग), औषध द्रव्यों की संख्या या मात्रा निश्चित करना, चिकित्सा की अवधि निर्धारित करना। | 
| 5. संयोग (Samyoga) | मिलाना (Combination), दो या अधिक द्रव्यों का एकत्रीकरण | विभिन्न द्रव्यों को मिलाकर (संयोग) औषध योग बनाना (जैसे त्रिफला = हरीतकी + विभीतक + आमलकी)। | 
| 6. विभाग (Vibhaga) | अलग करना (Separation), पृथक्करण | विश्लेषण (Analysis), औषध के घटकों को अलग करना (जैसे स्वरस निकालना), मिश्रित विषों का पृथक्करण, शल्य कर्म। | 
| 7. पृथकत्व (Prithaktva) | भिन्नता (Distinctness), प्रत्येक वस्तु का अपना अलग अस्तित्व | एक द्रव्य को दूसरे से भिन्न समझना, निदान में रोगों का विभेदन (Differential diagnosis)। | 
| 8. परिमाण (Parimana) | माप-तौल (Measurement), अणु से लेकर महत तक का मान | औषध की सही मात्रा (dose) का निर्धारण (जैसे अणु, कर्ष, पल, तोला), शरीर के अंगों का माप। | 
| 9. संस्कार (Samskara) | गुणों में परिवर्तन लाना (Transformation/Processing), गुणाधान | द्रव्यों का शोधन (विष हटाना), मर्दन (गुण वृद्धि), भावना (गुण परिवर्तन), भर्जन, आसव-अरिष्ट निर्माण आदि करके उनके स्वाभाविक गुणों को बदलना या नए गुण उत्पन्न करना। 'संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते' (च.वि. १/२४)। | 
| 10. अभ्यास (Abhyasa) | निरंतर सेवन/प्रयोग (Practice/Habituation), शीलन | किसी द्रव्य या क्रिया का बार-बार सेवन (जैसे रसायन सेवन, व्यायाम, पथ्य आहार) शरीर के लिए सात्म्य (habituation) उत्पन्न करता है और उसके प्रभाव को स्थायी बनाता है। | 
3. आध्यात्मिक गुण / आत्म गुण (Adhyatmika/Atma Gunas - 6):
ये गुण मुख्यतः आत्मा और मन से संबंधित हैं और मानसिक स्वास्थ्य तथा व्यवहार को प्रभावित करते हैं। इन्हें 'बुद्ध्यादि गुण' भी कहते हैं।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं प्रयत्नश्चेतना धृतिः।
             बुद्धिः स्मृतिरहङ्कारो लिङ्गानि परमात्मनः॥ 
मुख्य आध्यात्मिक गुण 6 माने जाते हैं:
- इच्छा (Iccha): राग, कामना (Desire)
- द्वेष (Dvesha): अरुचि, घृणा (Aversion)
- सुख (Sukha): अनुकूल वेदना (Happiness/Comfort)
- दुःख (Dukha): प्रतिकूल वेदना (Sorrow/Discomfort)
- प्रयत्न (Prayatna): चेष्टा, क्रिया का आरम्भ (Effort)
- बुद्धि (Buddhi): ज्ञान, निश्चय (Intellect/Knowledge)
(चेतना, धृति, स्मृति, अहंकार आदि भी आत्मा/मन के गुण माने जाते हैं और बुद्धि के अंतर्गत समाहित हो सकते हैं)। ये गुण सीधे तौर पर औषध कर्म में भाग नहीं लेते, लेकिन रोगी की मानसिक अवस्था, रोगोत्पत्ति, निदान और चिकित्सा की सफलता को गहराई से प्रभावित करते हैं।
गुणों का चिकित्सीय महत्व (Clinical Importance of Gunas)
गुणों का ज्ञान आयुर्वेद चिकित्सा का आधार है। गुणों के बिना न तो रोग को समझा जा सकता है और न ही प्रभावी चिकित्सा की जा सकती है।
- कर्म निर्धारण: द्रव्य के गुण ही उसके रस, वीर्य, विपाक और प्रभाव के साथ मिलकर उसके अंतिम कर्म (Pharmacological action) को निर्धारित करते हैं। उदाहरण के लिए, उष्ण, तीक्ष्ण, सूक्ष्म गुण ही चित्रक को 'दीपन-पाचन' कर्म करने में सक्षम बनाते हैं।
- औषध चयन (सामान्य-विशेष सिद्धांत): चिकित्सा का मूल सिद्धांत है - 'विपरीत गुणैः चिकित्सा'। रोग और रोगी की प्रकृति (दोषों और दूष्यों के गुण) का आंकलन कर, उसके विपरीत गुणों वाले औषध द्रव्य का चयन किया जाता है। जैसे - वात के रूक्ष, शीत, लघु गुणों की वृद्धि होने पर स्निग्ध, उष्ण, गुरु गुणों वाली औषधि (जैसे तेल अभ्यंग, बला तेल) का प्रयोग किया जाता है।
                
                सर्वदा सर्वभावानां सामान्यं वृद्धिकारणम्। (चरक संहिता, सूत्रस्थान १/४४)
 ह्रासहेतुर्विशेषश्च प्रवृत्तिरुभयस्य तु॥व्याख्या:हमेशा सभी भावों (पदार्थों) का सामान्य (समान गुण) वृद्धि का कारण होता है, और विशेष (विपरीत गुण) ह्रास (कमी) का कारण होता है। दोनों (सामान्य और विशेष) की प्रवृत्ति (प्रयोजन) क्रमशः वृद्धि और ह्रास करना है। 
- आहार योजना: रोगी के लिए पथ्य (हितकर) और अपथ्य (अहितकर) आहार का निर्धारण द्रव्यों के गुणों के आधार पर ही किया जाता है। जैसे - कफज कास में शीत, गुरु, स्निग्ध गुण वाले आहार (जैसे दही, केला) अपथ्य हैं।
- औषध निर्माण (संस्कार): संस्कार (Processing) द्वारा द्रव्यों के स्वाभाविक गुणों में परिवर्तन लाकर उन्हें चिकित्सा के लिए अधिक उपयुक्त बनाया जाता है। जैसे - चित्रक मूल का गोमूत्र में शोधन करने से उसकी तीक्ष्णता कम होती है।
- रोग निदान: दोषों और दूष्यों के गुणों में होने वाली वृद्धि या कमी के लक्षणों से रोग का निदान किया जाता है। जैसे - शरीर में रूक्षता, शीतलता, लाघवता वात वृद्धि के लक्षण हैं।
अतः, द्रव्यगुण विज्ञान में गुणों का (विशेषकर गुर्वादि और परादि गुणों का) विस्तृत अध्ययन एक सफल चिकित्सक बनने के लिए अनिवार्य है।
परीक्षा-उपयोगी प्रश्न (Exam-Oriented Questions)
(यह प्रश्नोत्तरी मुख्य रूप से 'गुण' अध्याय पर आधारित है)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (10 Marks Questions)
- गुण की परिभाषा एवं लक्षण लिखें। गुणों का विस्तृत वर्गीकरण प्रस्तुत करें, प्रत्येक वर्ग का संक्षिप्त परिचय दें।
- गुर्वादि गुणों का सोदाहरण वर्णन करें। प्रत्येक गुण के विपरीत गुण और प्रमुख कर्म बताएं। चिकित्सा में इनका महत्व स्पष्ट करें।
- परादि गुणों का नामोल्लेख करते हुए प्रत्येक का अर्थ और चिकित्सीय उपयोगिता संक्षेप में उदाहरण सहित बताएं।
- Define Guna according to Charaka. Classify Gunas in detail with examples for each category (Vaisheshika, Gurvadi, Paradi, Adhyatmika).
- Explain Gurvadi Gunas (20) with their opposites and primary actions. Discuss their importance in therapeutics with suitable examples.
लघु उत्तरीय प्रश्न (5 Marks Questions)
- गुण की परिभाषा एवं लक्षण (च.सू. १/५१)।
- गुणों का वर्गीकरण (Classification chart)।
- गुर्वादि गुण कौन-कौन से हैं? (नाम लिखें)।
- परादि गुण कौन-कौन से हैं? (नाम लिखें)।
- आध्यात्मिक गुण कौन-कौन से हैं?
- किन्हीं पांच गुर्वादि गुणों का वर्णन करें (जैसे - गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध) उनके कर्म सहित।
- युक्ति गुण और संस्कार गुण की चिकित्सीय उपयोगिता बताएं।
- सामान्य-विशेष सिद्धांत में गुणों का महत्व समझाएं (च.सू. १/४४)।
- वैशेषिक गुण (इन्द्रियार्थ) का वर्णन करें।
अति लघु उत्तरीय प्रश्न (2 Marks Questions)
- गुण की परिभाषा (च.सू. १/५१) लिखें।
- गुण द्रव्य में किस सम्बन्ध से रहता है? (समवाय)
- गुण सक्रिय होते हैं या निष्क्रिय? (निष्क्रिय/निश्चेष्ट)
- गुर्वादि गुणों की संख्या बताएं। (20)
- परादि गुणों की संख्या बताएं। (10)
- आध्यात्मिक गुणों की संख्या बताएं। (6)
- शीत का विपरीत गुण क्या है? (उष्ण)
- रूक्ष का विपरीत गुण क्या है? (स्निग्ध)
- 'युक्ति' गुण का एक उपयोग बताएं। (औषध योजना/योग निर्माण)
- 'संस्कार' गुण का एक उदाहरण दें। (विष शोधन/भस्म निर्माण)
- वैशेषिक गुण कितने हैं? नाम लिखें। (5 - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध)
- 'सामान्यं वृद्धिकारणम्' किस सिद्धांत से सम्बंधित है? (सामान्य-विशेष सिद्धांत)
 
 
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