Amidha Ayurveda

28/10/25

Rasa (रस)

In This Article
    रस (Rasa) - द्रव्यगुण विज्ञान नोट्स | BAMS Chapter Notes

    रस (Rasa) - द्रव्यगुण विज्ञान नोट्स

    यह लेख BAMS द्वितीय वर्ष के द्रव्यगुण विज्ञान विषय के अंतर्गत **'रस'** अध्याय पर केंद्रित है। रस, द्रव्य के सप्त पदार्थों में से एक है और इसका ज्ञान आहार एवं औषध द्रव्यों के चयन और प्रभाव को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस अध्याय में हम रस की निरुक्ति, परिभाषा, संख्या, पंचभौतिक संघटन, गुण, कर्म, रस-अनुभव के कारक, अनु रस और चिकित्सीय महत्व का विस्तार से अध्ययन करेंगे।

    अध्याय सार (Chapter in Brief)

    • रस परिभाषा: रस द्रव्य का वह गुण/अर्थ है जिसका ज्ञान रसना (जिह्वा) इन्द्रिय द्वारा, द्रव्य के संपर्क में आने पर होता है।
    • षड् रस: आयुर्वेद में 6 रस माने गए हैं - मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय।
    • पंचभौतिक संघटन: प्रत्येक रस दो विशिष्ट महाभूतों की प्रधानता से बनता है, यद्यपि सभी पाँचों महाभूत उसमें उपस्थित रहते हैं (जैसे मधुर = पृथ्वी + जल)।
    • रस के गुण ও कर्म: प्रत्येक रस के अपने विशिष्ट गुर्वादि गुण होते हैं जो शरीर पर त्रिदोष, धातु और मल पर निश्चित प्रभाव (कर्म) डालते हैं।
    • चिकित्सीय महत्व: रसों का ज्ञान आहार नियोजन (पथ्य-अपथ्य), ऋतुचर्या पालन, औषध द्रव्यों के चयन और सामान्य-विशेष सिद्धांत के अनुप्रयोग में मूलभूत भूमिका निभाता है।
    • अनु रस: मुख्य रस के साथ अव्यक्त रूप से रहने वाला गौण रस, जो द्रव्य के कर्म में योगदान देता है।

    रस (Rasa - Taste)

    द्रव्यगुण विज्ञान में 'रस' शब्द के विभिन्न संदर्भों में अलग-अलग अर्थ होते हैं, जैसे - रस धातु (Plasma/Lymph), पारद (Mercury), सार भाग (Essence), और यहाँ प्रासंगिक अर्थ है 'स्वाद' (Taste)। रस, द्रव्य में रहने वाले सप्त पदार्थों में से एक है और इसे वैशेषिक दर्शन के अनुसार 24 गुणों में भी गिना जाता है (वैशेषिक गुण या इन्द्रियार्थ)। रसना (जिह्वा) इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाने वाला यह गुण आहार और औषध द्रव्यों के शरीर पर होने वाले प्रभावों को समझने की कुंजी है।

    रस की निरुक्ति एवं परिभाषा (Etymology and Definition of Rasa)

    निरुक्ति:

    • 'रस आस्वादने' धातु से 'रस' शब्द बना है। 'रस्यते आस्वाद्यते इति रसः' - अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए, वह रस है।
    • 'रसयति इति रसः' - जो आनंदित करे या तृप्त करे, वह रस है।
    • 'अहर्निशं गच्छति इति रसः' - जो शरीर में निरंतर गतिमान रहता है (रस धातु के संदर्भ में)।

    परिभाषा (Definition related to Taste):

    आचार्य चरक रस को रसना इन्द्रिय के 'अर्थ' (विषय) के रूप में परिभाषित करते हैं:

    रसनार्थो रसस्तस्य द्रव्यमापः क्षितिस्तथा।
    निर्वृत्तौ च विशेषे च प्रत्ययाः खादयस्त्रयः॥

    (चरक संहिता, सूत्रस्थान १/६४)

    व्याख्या:

    रसना (जिह्वा) इन्द्रिय का जो **अर्थ** (विषय/object of perception) है, वह **रस** है। उस रस का **द्रव्य** (समवायि कारण या उपादान कारण - Material cause) **जल (आपः)** और **पृथ्वी (क्षिति)** महाभूत हैं। रस की उत्पत्ति (निर्वृत्ति - Manifestation) और उसकी विशेषता (विशेष - अर्थात् 6 प्रकार के रसों का भेद) में **आकाश (ख), वायु (आदि), और अग्नि (त्रयः)** महाभूत **निमित्त कारण** (प्रत्यय - Instrumental/Auxiliary cause) होते हैं।

    इसका तात्पर्य है कि रस की अनुभूति के लिए जल और पृथ्वी महाभूत मूलभूत हैं, लेकिन अन्य तीन महाभूतों के विभिन्न अनुपातों में मिलने से ही मधुर, अम्ल आदि 6 भिन्न रसों का निर्माण और अनुभव संभव होता है।

    आचार्य सुश्रुत की परिभाषा सरल और प्रत्यक्ष है:

    रशनग्राह्यो योऽर्थः स रसः।
    ... स च षडविधः - मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय इति।

    (सुश्रुत संहिता, सूत्रस्थान ४०/४ का भावार्थ)

    व्याख्या:

    रसना इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाने वाला जो 'अर्थ' (विषय) है, वह रस है। और वह मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय - इन 6 प्रकार का होता है।

    रसों की संख्या (Number of Rasas)

    आयुर्वेद में सर्वसम्मति से रसों की संख्या **6 (षड् रस)** मानी गई है, जैसा कि सुश्रुत के उपरोक्त कथन में स्पष्ट है।

    1. मधुर (Madhura): Sweet (मीठा)
    2. अम्ल (Amla): Sour (खट्टा)
    3. लवण (Lavana): Salty (नमकीन)
    4. कटु (Katu): Pungent (चरपरा/तीखा)
    5. तिक्त (Tikta): Bitter (कड़वा)
    6. कषाय (Kashaya): Astringent (कसैला)

    स्वाद्वम्ललवणकटुकतिक्तकषायाः रसाः।

    (अष्टांगहृदय, सूत्रस्थान १/१४)

    यद्यपि कुछ अन्य मत (जैसे भद्रकाप्य - 8 रस) भी मिलते हैं, किन्तु चिकित्सा की दृष्टि से षड् रस सिद्धांत ही सर्वमान्य और व्यावहारिक है।

    रसों का पंचभौतिक संघटन (Panchabhautika Composition of Rasas)

    जैसा कि चरक संहिता की परिभाषा (च.सू. १/६४) में स्पष्ट किया गया है, सभी रस पांचभौतिक होते हैं। जल और पृथ्वी रस की उत्पत्ति के मुख्य आधार (प्रकृति) हैं, जबकि आकाश, वायु और अग्नि उसमें विविधता (विकृति) लाते हैं। प्रत्येक रस में दो महाभूतों की प्रधानता (उत्कर्ष) होती है, जिसके कारण उसके विशिष्ट गुण और कर्म प्रकट होते हैं।

    ...तेषां षट्त्वमुपयोगि महाभूतानां...
    ...अग्नीषोमात्मकं जगत्...

    (चरक संहिता, सूत्रस्थान २६/८ का भावार्थ)

    व्याख्या:

    महाभूतों के विभिन्न संयोगों के कारण ही 6 रसों की उत्पत्ति होती है। सम्पूर्ण जगत (और उसमें उपस्थित द्रव्य) मुख्य रूप से अग्नि (उष्णता) और सोम (शीतलता/जल) आत्मक है। इसी आधार पर रसों का वर्गीकरण भी किया जाता है (जैसे सौम्य रस - मधुर, तिक्त, कषाय; आग्नेय रस - कटु, अम्ल, लवण)।

    यह समझना महत्वपूर्ण है कि यद्यपि प्रत्येक रस में दो महाभूत प्रधान होते हैं, अन्य तीन महाभूत भी अल्प मात्रा में (अपकर्ष रूप में) उपस्थित रहते हैं। इसी कारण द्रव्यों में गुण-कर्म की विविधता पाई जाती है।

    रस प्रधान महाभूत अनुमानित गुण (महाभूतों के आधार पर)
    1. मधुर (Sweet) पृथ्वी + जल गुरु, स्निग्ध, शीत, मंद
    2. अम्ल (Sour) पृथ्वी + अग्नि लघु, उष्ण, स्निग्ध
    3. लवण (Salty) जल + अग्नि गुरु (अस्निग्धानुष्ण), उष्ण, स्निग्ध, सर
    4. कटु (Pungent) वायु + अग्नि लघु, उष्ण, रूक्ष, तीक्ष्ण
    5. तिक्त (Bitter) वायु + आकाश लघु, शीत, रूक्ष, विशद
    6. कषाय (Astringent) वायु + पृथ्वी गुरु, शीत, रूक्ष, स्तंभक

    महाभूतों की प्रधानता का ज्ञान रसों के गुणों और कर्मों को समझने में सहायक होता है।

    षड् रसों के गुण और कर्म (Properties and Actions of Six Rasas)

    प्रत्येक रस के अपने स्वाभाविक गुण होते हैं (जो मुख्यतः उनके पंचभौतिक संघटन पर आधारित होते हैं) और वे शरीर में त्रिदोषों (वात, पित्त, कफ), धातुओं और मलों पर विशिष्ट प्रभाव डालते हैं।

    रस प्रमुख गुण दोष प्रभाव (वृद्धि/शमन) धातु/मल पर प्रभाव (मुख्य) अन्य कर्म (संक्षेप में) उदाहरण द्रव्य
    मधुर गुरु, शीत, स्निग्ध वात↓, पित्त↓, कफ↑ रस-रक्तादि सप्तधातु वर्धक, ओज वर्धक, मल-मूत्र वर्धक बृंहण, बल्य, जीवन, तर्पण, संधान, आयुष्य, इन्द्रिय प्रसादन, स्तन्यजनन घी, शर्करा, मधु (पुराना), दुग्ध, मांस, चावल, गेहूं, मुलेठी, शतावरी
    अम्ल लघु, उष्ण, स्निग्ध वात↓, पित्त↑, कफ↑ रक्त वर्धक (अत्यधिक सेवन से रक्त दूषित), शुक्र ह्रास दीपन, पाचन, अनुलोमन, रोचन, हृद्य, क्लेदन, लेखन (mild), अवयव दृढ़कर नींबू, इमली, दही, छाछ, आमलकी, अनार (खट्टा), तक्र
    लवण गुरु (अस्निग्धानुष्ण), उष्ण, स्निग्ध, तीक्ष्ण, सर वात↓, पित्त↑, कफ↑ रक्त वर्धक (अत्यधिक सेवन से रक्त दूषित), अस्थि शैथिल्यकर, शुक्र ह्रास, मल भेदन, मूत्रल दीपन, पाचन, क्लेदन, भेदन, छेदन, स्रोतोविशोधन, अवयव मार्दवकर, अन्य रसों का ग्राहक सैंधव लवण, सामुद्र लवण, सौवर्चल लवण, विड लवण
    कटु लघु, उष्ण, तीक्ष्ण, रूक्ष, विशद वात↑, पित्त↑, कफ↓ शुक्र ह्रास, स्तन्य ह्रास, मेद शोषण, मल-मूत्र रोधक (कम मात्रा में), मल भेदन (अधिक मात्रा में) दीपन, पाचन, रोचन, छेदन, लेखन, स्रोतोविशोधन, कृमिघ्न, चक्षु उत्तेजक, आलस्य नाशक मरिच, पिप्पली, शुण्ठी, चित्रक, लहसुन, हींग, राई
    तिक्त लघु, शीत, रूक्ष, विशद वात↑, पित्त↓, कफ↓ रस-रक्तादि शोषण, मेद शोषण, मल-मूत्र शोषण अरुचि नाशक, विषघ्न, कृमिघ्न, कुष्ठघ्न, ज्वरघ्न, दीपन (स्वयं अपाचक), पाचन (आम का), लेखन, क्लेद-मेद-वसा-मूत्र शोषण, स्तन्य शोधन, कंठ शोधन नीम, करेला, चिरायता, कुटकी, गिलोय, वासा, हल्दी, मेथी
    कषाय गुरु, शीत, रूक्ष वात↑, पित्त↓, कफ↓ रक्त स्तंभन, शुक्र स्तंभन, मल-मूत्र स्तंभन संग्राही, स्तंभन, संधान, रोपण, क्लेद शोषण, रक्त प्रसादन (शोधन), लेखन हरीतकी, बहेड़ा, बबूल, अर्जुन, खदिर, कमल, कच्चा केला, जामुन

    रसाः कट्वम्ललवणा वातघ्नाः; मधुराम्ललवणाः पित्तघ्नाः;
    कटुतिक्तकषायाः श्लेष्मघ्नाः... (इत्यादि)

    (चरक संहिता, सूत्रस्थान २६ के आधार पर दोष प्रभाव का सार)

    व्याख्या:

    सामान्य नियम के अनुसार, कटु, अम्ल, लवण रस वात को शांत करते हैं; मधुर, अम्ल, लवण रस पित्त को शांत करते हैं (यहाँ चरक का पाठ थोड़ा भिन्न है, सामान्यतः मधुर-तिक्त-कषाय पित्त शामक माने जाते हैं); कटु, तिक्त, कषाय रस कफ को शांत करते हैं। इसी प्रकार, विपरीत रस दोषों को बढ़ाते हैं। रसों का विस्तृत कर्म च.सू. 26 में वर्णित है।

    रस उपल‌ब्धि (Perception of Taste)

    रस का ज्ञान रसना (जिह्वा) इन्द्रिय द्वारा होता है, जो स्वयं आप्य (जल) महाभूत प्रधान है। जिह्वा पर स्थित 'बोधक कफ' (एक प्रकार का कफ दोष) रस के अणुओं को घोलकर रस ग्राहक कोशिकाओं (Taste buds) तक पहुँचाता है, जिससे रस का ज्ञान होता है।

    रसना रसज्ञाने; सा ह्याप्योपदिग्धा रसांश्चैवाभिव्यञ्जयति।

    (चरक संहिता, सूत्रस्थान ८/९ का अंश)

    व्याख्या:

    रसना इन्द्रिय रस का ज्ञान कराती है; यह स्वयं आप्य (जल) महाभूत प्रधान है और (बोधक कफ से) लिप्त (उपदिग्धा) रहकर ही रसों को अभिव्यक्त करती है (अर्थात् रस का ज्ञान कराती है)।

    रस का अनुभव होने के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं:

    • द्रव्य का जिह्वा से संपर्क।
    • द्रव्य का आर्द्र (wet) या लार (बोधक कफ) में घुलनशील होना।
    • रसना इन्द्रिय का स्वस्थ होना (जैसे ज्वर में रसना विकृत होने पर स्वाद का पता नहीं चलता)।
    • मन का संयोग (ध्यान कहीं और होने पर स्वाद का अनुभव नहीं होता)।

    रस उपल‌ब्धि को कई अन्य कारक भी प्रभावित करते हैं, जैसे - द्रव्य की मात्रा, तापमान (अत्यधिक ठंडा या गर्म होने पर रस स्पष्ट नहीं होता), पहले खाए गए द्रव्य का प्रभाव, व्यक्ति की मानसिक स्थिति, जिह्वा की स्वच्छता आदि।

    अनु रस (Anuras - Sub-taste/After-taste)

    अनु रस का अर्थ है - पश्चात् रस, उपरस या गौण रस।

    • जब किसी द्रव्य में एक रस मुख्य (प्रधान) रूप से व्यक्त होता है और उसके साथ कोई अन्य रस अल्प मात्रा में और अव्यक्त (unmanifested/less perceived) रूप से उपस्थित रहता है, तो उस अव्यक्त रस को 'अनु रस' कहते हैं।
    • अनु रस की प्रतीति या तो मुख्य रस के साथ ही होती है या उसके कुछ देर बाद होती है।
    • रसानामभिव्यक्तानां पश्चाद्योऽभिव्यज्यतेऽव्यक्तः
      सोऽनुरस इत्युक्तो ...

      (सुश्रुत संहिता, सूत्रस्थान ४०/७)

      व्याख्या:

      व्यक्त (मुख्य) रसों के अनुभव के पश्चात् जो अव्यक्त रस अनुभव होता है, उसे अनु रस कहा गया है।

    • उदाहरण:
      • आमलकी (आंवला) में मुख्य रस 'अम्ल' है, लेकिन चबाने के बाद मुख में मधुरता का अनुभव होता है, यह मधुर 'अनु रस' है।
      • हरीतकी में मुख्य रस 'कषाय' है, लेकिन उसमें लवण को छोड़कर शेष पांचों रस (मधुर, अम्ल, कटु, तिक्त) 'अनु रस' के रूप में पाए जाते हैं।
      • पिप्पली में मुख्य रस 'कटु' है, परन्तु उसमें 'मधुर' अनु रस होता है (जो उसके मधुर विपाक का कारण बनता है)।
    • अनु रस भी द्रव्य के वीर्य, विपाक और कर्म को प्रभावित करता है।

    रसों का चिकित्सीय महत्व (Clinical Importance of Rasas)

    रसों का ज्ञान आयुर्वेद चिकित्सा की आधारशिला है। इसके बिना न तो स्वास्थ्य रक्षा संभव है और न ही रोग निवारण।

    • रोग निदान: शरीर में किसी विशेष रस के प्रति अत्यधिक इच्छा (जैसे गर्भावस्था में अम्ल रस की इच्छा) या अरुचि (जैसे ज्वर में किसी भी रस का अच्छा न लगना) दोषों की विकृति या शारीरिक आवश्यकता का महत्वपूर्ण संकेत हो सकती है।
    • औषध/आहार चयन (सामान्य-विशेष सिद्धांत): चिकित्सा का मुख्य आधार दोषों के विपरीत रस वाले द्रव्यों का प्रयोग है।
      • वातज रोगों में वात शामक (मधुर, अम्ल, लवण) रस युक्त आहार-औषध।
      • पित्तज रोगों में पित्त शामक (मधुर, तिक्त, कषाय) रस युक्त आहार-औषध।
      • कफज रोगों में कफ शामक (कटु, तिक्त, कषाय) रस युक्त आहार-औषध।

      रसाहारगुणैश्चैव समानैर्दोषवृद्धिता।
      विपरीतगुणैर्ह्रासः ...

      (अष्टांगहृदय, सूत्रस्थान १२/६७ का भावार्थ)

      व्याख्या:

      समान रस, आहार और गुणों के सेवन से दोषों की वृद्धि होती है, और विपरीत गुणों (रस आदि) के सेवन से उनका ह्रास होता है।

    • पथ्य-अपथ्य निर्धारण: रोगी के लिए कौन सा आहार हितकर (पथ्य) है और कौन सा अहितकर (अपथ्य), इसका निर्धारण मुख्य रूप से रोग की दोष प्रधानता और आहार द्रव्यों के रसों के आधार पर किया जाता है। जैसे - प्रमेह (Diabetes) में मधुर रस अपथ्य है।
    • षड् रसात्मक भोजन: स्वस्थ व्यक्ति को अपने भोजन में सभी 6 रसों का संतुलित मात्रा में समावेश करना चाहिए ताकि सभी दोष और धातुएं साम्यावस्था में रहें। किसी एक रस का अत्यधिक सेवन या पूर्ण अभाव विभिन्न रोगों का कारण बनता है।
    • ऋतुचर्या: विभिन्न ऋतुओं में स्वाभाविक रूप से बढ़ने या घटने वाले दोषों को संतुलित करने के लिए उस ऋतु के अनुसार विशिष्ट रस प्रधान आहार लेने का निर्देश है (जैसे - शिशिर ऋतु में कफ संचय रोकने हेतु कटु-तिक्त-कषाय; ग्रीष्म में पित्त शमन हेतु मधुर-तिक्त-कषाय)।
    • द्रव्य कर्म अनुमान: द्रव्य के रस से उसके संभावित वीर्य, विपाक और कर्म का अनुमान लगाया जा सकता है (यद्यपि यह हमेशा सत्य नहीं होता, प्रभाव और वीर्य का विशेष महत्व है)।

    अतः, द्रव्य के रस का सम्यक् ज्ञान उसके पंचभौतिक संघटन, गुण, दोषों पर प्रभाव और चिकित्सीय उपयोग को समझने के लिए अनिवार्य है।

    परीक्षा-उपयोगी प्रश्न (Exam-Oriented Questions)

    (यह प्रश्नोत्तरी मुख्य रूप से 'रस' अध्याय पर आधारित है)

    दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (10 Marks Questions)

    1. रस की निरुक्ति, परिभाषा, संख्या एवं पंचभौतिक संघटन का सविस्तार वर्णन करें।
    2. षड् रसों का नामोल्लेख करते हुए प्रत्येक के प्रमुख गुण, दोष प्रभाव, धातु/मल पर प्रभाव एवं मुख्य कर्मों का सोदाहरण वर्णन करें।
    3. Define Rasa according to Charaka and Sushruta. Describe the number, Panchabhautika composition, properties, and actions of Shad Rasas with suitable examples.
    4. Explain the clinical importance and application of Rasa in Ayurveda, covering dietetics (Pathya-Apathya), treatment principles (Samanya-Vishesha), and Ritucharya with relevant examples.

    लघु उत्तरीय प्रश्न (5 Marks Questions)

    • रस की परिभाषा एवं लक्षण (च.सू. १/६४)।
    • रसों की संख्या एवं नाम लिखें।
    • रसों का पंचभौतिक संघटन तालिका रूप में प्रस्तुत करें।
    • मधुर रस के गुण, कर्म एवं उदाहरण लिखें।
    • तिक्त रस के गुण, कर्म एवं उदाहरण लिखें।
    • कटु रस और कषाय रस में दोष प्रभाव की दृष्टि से अंतर स्पष्ट करें।
    • अनु रस क्या है? सोदाहरण समझाएं।
    • रस उपल‌ब्धि को प्रभावित करने वाले कारक बताएं।
    • चिकित्सा में रसों का महत्व संक्षेप में बताएं।
    • आग्नेय एवं सौम्य रसों का वर्गीकरण करें।

    अति लघु उत्तरीय प्रश्न (2 Marks Questions)

    • रस की निरुक्ति लिखें। ('रस्यते आस्वाद्यते इति रसः')
    • रसना इन्द्रिय का विषय क्या है? (रस)
    • रस कितने प्रकार के होते हैं? (6)
    • मधुर रस का पंचभौतिक संघटन क्या है? (पृथ्वी + जल)
    • कटु रस का पंचभौतिक संघटन क्या है? (वायु + अग्नि)
    • वात शामक रस कौन से हैं? (मधुर, अम्ल, लवण)
    • पित्त शामक रस कौन से हैं? (मधुर, तिक्त, कषाय)
    • कफ शामक रस कौन से हैं? (कटु, तिक्त, कषाय)
    • लवण रस के दो कर्म लिखें। (दीपन, पाचन / क्लेदन, भेदन)
    • अनु रस का एक उदाहरण दें। (हरीतकी/आमलकी)
    • रस उपल‌ब्धि किस कफ के द्वारा होती है? (बोधक कफ)
    • षड् रसात्मक भोजन क्यों आवश्यक है? (दोष साम्यता हेतु)

    About the Author: Sparsh Varshney

    Sparsh Varshney is a BAMS (Bachelor of Ayurvedic Medicine and Surgery) student and the founder of AmidhaAyurveda.com. His mission is to share the deep and timeless wisdom of Ayurveda in an accessible and practical way, empowering people to reclaim their health naturally.

    Disclaimer: This article is for educational purposes only, intended for BAMS students. This information is based on Ayurvedic Samhitas and textbooks. For any medical advice or treatment, always consult a qualified Ayurvedic practitioner.

    No comments:

    Post a Comment

    Amidha Ayurveda