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28/10/25

Virya (वीर्य)

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    वीर्य (Virya) - द्रव्यगुण विज्ञान नोट्स | BAMS Chapter Notes

    वीर्य (Virya) - द्रव्यगुण विज्ञान नोट्स

    यह लेख BAMS द्वितीय वर्ष के द्रव्यगुण विज्ञान विषय के अंतर्गत **'वीर्य'** अध्याय पर केंद्रित है। वीर्य, द्रव्य के सप्त पदार्थों में से एक है, जो द्रव्य की शक्ति या पोटेंसी (Potency/Active Principle) को दर्शाता है। यह रस और विपाक की अपेक्षा अधिक बलवान होता है और द्रव्य के अधिकांश कर्मों के लिए उत्तरदायी होता है। इस अध्याय में हम वीर्य की परिभाषा, उसके भेद (द्विविध एवं अष्टविध), वीर्य और प्रभाव में अंतर, तथा चिकित्सा में उसकी उपयोगिता का अध्ययन करेंगे।

    अध्याय सार (Chapter in Brief)

    • वीर्य परिभाषा: द्रव्य की वह शक्ति (Potency) जिसके द्वारा वह शरीर में कर्म (Action) करता है, वीर्य कहलाती है। (येन कुर्वन्ति तद्वीर्यम्)
    • मुख्य भेद (द्विविध): आचार्य चरक और सुश्रुत ने वीर्य के दो मुख्य भेद माने हैं - **शीत (Cooling)** और **उष्ण (Heating)**।
    • अन्य भेद (अष्टविध): अन्य आचार्यों (जैसे नागार्जुन) ने 8 वीर्य माने हैं - गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण, मृदु, तीक्ष्ण। ये मूलतः गुरुवादी गुण ही हैं।
    • वीर्य की प्रबलता: वीर्य, रस और विपाक से अधिक बलवान होता है। अधिकांशतः द्रव्य का कर्म वीर्य के अनुसार ही होता है।
    • वीर्य और प्रभाव में अंतर: वीर्य 'चिन्त्य' (Explainable) होता है, जबकि प्रभाव 'अचिन्त्य' (Unexplainable) होता है।

    वीर्य (Virya - The Potency)

    द्रव्यगुण विज्ञान में 'वीर्य' को द्रव्य की वास्तविक शक्ति माना गया है। 'वीर्य' शब्द 'वीर' धातु से बना है, जिसका अर्थ है पराक्रम, शक्ति या गति। द्रव्य जिन गुणों की प्रधानता के कारण शरीर में अपना विशिष्ट कर्म करता है, उसे वीर्य कहते हैं।

    वीर्य की परिभाषा (Definition of Virya)

    विभिन्न आचार्यों ने वीर्य को परिभाषित किया है:

    वीर्यं तु क्रियते येन या क्रिया।
    नावीर्यं कुरुते किञ्चित् सर्वा वीर्यकृता हि सा॥

    (चरक संहिता, सूत्रस्थान २६/६५)

    व्याख्या:

    जिस (शक्ति) के द्वारा द्रव्य क्रिया (कर्म) करता है, वह वीर्य है। बिना वीर्य के कोई द्रव्य कोई भी कर्म नहीं कर सकता, क्योंकि सभी कर्म वीर्य द्वारा ही किये जाते हैं।

    आचार्य वाग्भट्ट ने इसे और सरल रूप में कहा है:

    येन कुर्वन्ति तद्वीर्यम्।

    (अष्टांग हृदय, सूत्रस्थान ९/१२)

    व्याख्या:

    द्रव्य जिस (शक्ति) से (अपना) कार्य करता है, वह उसका वीर्य है।

    अतः वीर्य को द्रव्य का 'Active Principle' या 'Potency' कहा जा सकता है जो उसके औषधीय गुणों के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है।

    वीर्य के भेद (Classification of Virya)

    वीर्य के भेदों को लेकर आचार्यों में दो मुख्य मत प्रचलित हैं:

    1. द्विविध वीर्य (Two-fold Potency)

    यह आचार्य **चरक** और **सुश्रुत** का प्रमुख मत है। उनके अनुसार वीर्य मुख्य रूप से दो ही प्रकार का होता है - शीत और उष्ण।

    वीर्यं द्विविधं उष्णं शीतं चेति।

    (सुश्रुत संहिता, सूत्रस्थान ४०/९)

    यह वर्गीकरण शरीर पर द्रव्य के समग्र प्रभाव (Heating or Cooling effect) पर आधारित है।

    वीर्य महाभूत प्रधानता गुण दोषों पर प्रभाव प्रमुख कर्म उदाहरण
    शीत वीर्य जल + पृथ्वी स्निग्ध, गुरु, मंद, मृदु, पिच्छिल पित्तशामक, वात-कफ वर्धक प्रह्लादन, जीवन, स्तम्भन, रक्तपित्त शामक चन्दन, शतावरी, मुलेठी, दुग्ध, घृत
    उष्ण वीर्य अग्नि (तेज) लघु, रूक्ष, तीक्ष्ण, विशद कफ-वात शामक, पित्त वर्धक दीपन, पाचन, स्वेदन, विलायन, दाह शुण्ठी, मरिच, पिप्पली (त्रिकटु), चित्रक, भल्लातक

    2. अष्टविध वीर्य (Eight-fold Potency)

    कुछ अन्य आचार्यों, जैसे नागार्जुन, ने गुरुवादी गुणों में से 8 प्रमुख गुणों को ही वीर्य माना है। इन्हें 'अष्टविध वीर्य' कहा जाता है:

    1. गुरु (Heavy)
    2. लघु (Light)
    3. शीत (Cold)
    4. उष्ण (Hot)
    5. स्निग्ध (Unctuous)
    6. रूक्ष (Dry)
    7. मृदु (Soft)
    8. तीक्ष्ण (Sharp)

    मत-समाधान: आचार्य चरक ने स्वयं इन 8 गुणों को वीर्य कहा है (च.सू. २६), लेकिन उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि इन आठों में भी **शीत** और **उष्ण** ही सबसे प्रधान और शक्तिशाली हैं। अन्य 6 (गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, तीक्ष्ण) इन्हीं दो के अंतर्गत समाहित हो जाते हैं। इसलिए, चिकित्सा की दृष्टि से द्विविध वीर्य (शीत-उष्ण) का सिद्धांत ही अधिक महत्वपूर्ण और प्रचलित है।

    वीर्य निर्धारण (Determination of Virya)

    किसी द्रव्य का वीर्य कैसे ज्ञात किया जाता है? इसके दो मुख्य तरीके हैं:

    • प्रत्यक्ष (Direct Perception): कुछ द्रव्यों का वीर्य सीधे अनुभव किया जा सकता है। जैसे - चन्दन को त्वचा पर लगाने से शीतलता (शीत वीर्य) और चित्रक या मिर्च को छूने/खाने से उष्णता (उष्ण वीर्य) का अनुभव होना।
    • अनुमान (Inference): अधिकांश द्रव्यों के वीर्य का ज्ञान उनके द्वारा शरीर पर किये जाने वाले कर्मों से होता है। यदि कोई द्रव्य 'दीपन' और 'पाचन' (भूख बढ़ाना और भोजन पचाना) करता है, तो अनुमान लगाया जाता है कि वह 'उष्ण वीर्य' होगा, क्योंकि यह अग्नि का कर्म है। इसी प्रकार, यदि कोई द्रव्य 'दाह' (जलन) शांत करता है, तो वह 'शीत वीर्य' होगा।

    वीर्य की प्रबलता (Dominance of Virya)

    द्रव्यगुण के सप्त पदार्थों में एक पदानुक्रम (Hierarchy) होता है, जो यह निर्धारित करता है कि द्रव्य का अंतिम कर्म क्या होगा। यह सिद्धांत है:

    रस < विपाक < वीर्य < प्रभाव

    इसका अर्थ है कि वीर्य, रस और विपाक दोनों से अधिक बलवान होता है।

    रसविपाकयोर्वीर्यं बलवत्तरम्, तेन तौ अभिभूय स्वकार्यं करोति।

    व्याख्या:

    वीर्य, रस और विपाक से अधिक बलवान होता है, इसलिए वह उन दोनों (के कर्मों) को दबाकर अपना कार्य (प्रधानता से) करता है।

    उदाहरण:

    • मरिच (काली मिर्च): इसका रस 'कटु' (Katu) और विपाक भी 'कटु' (Katu) होता है। कटु रस और कटु विपाक दोनों 'वात' को बढ़ाते हैं। लेकिन, मरिच का वीर्य 'उष्ण' होता है। उष्ण वीर्य 'वात' का शमन करता है। चूँकि वीर्य अधिक बलवान है, इसलिए मरिच अंततः 'वातशामक' होती है, न कि वातवर्धक।
    • आमलकी (आंवला): इसका रस 'अम्ल' प्रधान है (लवण रहित पंचरस)। अम्ल रस 'पित्त' को बढ़ाता है। लेकिन, आमलकी का वीर्य 'शीत' और विपाक 'मधुर' होता है। ये दोनों 'पित्त' का शमन करते हैं। वीर्य और विपाक के बलवान होने के कारण, अम्ल रस होते हुए भी आमलकी 'पित्तशामक' (और श्रेष्ठ रसायन) है।

    वीर्य और प्रभाव में भेद (Difference between Virya and Prabhav)

    यह द्रव्यगुण विज्ञान का एक अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। वीर्य और प्रभाव दोनों ही द्रव्य के कर्म के लिए उत्तरदायी हैं, लेकिन इनमें सूक्ष्म भेद है।

    रसवीर्यविपाकानां सामान्यं यत्र दृश्यते।
    कर्मणा विशिष्टं तत् कर्म प्रभावजं स्मृतम्॥

    व्याख्या:

    जहाँ दो द्रव्यों के रस, वीर्य और विपाक समान हों, फिर भी उनके कर्मों में विशिष्टता (भिन्नता) दिखाई दे, तो वह विशिष्ट कर्म 'प्रभाव' के कारण माना जाता है।

    वीर्य 'चिन्त्य' (Explainable) होता है, अर्थात् उसके कर्म को गुण (जैसे उष्णता, शीतलता) के आधार पर समझाया जा सकता है। इसके विपरीत, प्रभाव 'अचिन्त्य' (Unexplainable) होता है, अर्थात् उसके विशिष्ट कर्म को रस, गुण, वीर्य, विपाक के आधार पर नहीं समझाया जा सकता।

    आधार वीर्य (Virya) प्रभाव (Prabhava)
    परिभाषा द्रव्य की सामान्य शक्ति, जो उसके कर्म के लिए उत्तरदायी है। द्रव्य की विशिष्ट, अकल्पनीय और अचिन्त्य शक्ति।
    स्पष्टता चिन्त्य (Explainable): इसे गुणों (शीत, उष्ण) के आधार पर समझाया जा सकता है। अचिन्त्य (Unexplainable): इसे गुणों से नहीं समझाया जा सकता। यह द्रव्य की विशिष्ट संरचना (Specific chemical composition/action) पर आधारित है।
    कार्य सामान्य कर्म करता है (जैसे - उष्ण वीर्य से दीपन-पाचन, शीत वीर्य से दाह-शमन)। विशिष्ट कर्म करता है (जैसे - विरेचन, हृद्य, मेध्य)।
    उदाहरण 1 चित्रक: उष्ण वीर्य होने से दीपन-पाचन करता है। (यह सामान्य कर्म है) दन्ती: चित्रक के समान ही उष्ण वीर्य है, उसे भी दीपन-पाचन करना चाहिए, किन्तु वह 'विरेचन' (Purgation) जैसा विशिष्ट कर्म करती है। यह दन्ती का 'प्रभाव' है।
    उदाहरण 2 घृत (घी): शीत वीर्य है, मधुर विपाक है। (अग्नि मंद करता है) गोघृत: शीत वीर्य और मधुर विपाक होते हुए भी, यह 'अग्नि दीपन' (पाचन शक्ति बढ़ाना) करता है। यह गोघृत का 'प्रभाव' है।
    उदाहरण 3 विष (Poison): उष्ण, तीक्ष्ण आदि गुणों से दाह, मूर्च्छा आदि उत्पन्न करता है। (यह वीर्यज कर्म है) मन्त्र: मन्त्रों का विष पर प्रभाव (विष को उतारना) किसी शीत-उष्ण गुण पर आधारित नहीं है, वह 'अचिन्त्य' प्रभाव है।

    अतः, जब द्रव्य का कर्म उसके रस-विपाक-वीर्य से समझाया जा सके, तो वह वीर्यज कर्म है। और जब कर्म इन तीनों से परे, विशिष्ट और अचिन्त्य हो, तो वह प्रभावज कर्म कहलाता है।

    परीक्षा-उपयोगी प्रश्न (Exam-Oriented Questions)

    (यह प्रश्नोत्तरी मुख्य रूप से 'वीर्य' अध्याय पर आधारित है)

    दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (10 Marks Questions)

    1. वीर्य की परिभाषा लिखें। वीर्य के द्विविध एवं अष्टविध भेदों का विस्तार से वर्णन करें। वीर्य की प्रबलता का सिद्धांत सोदाहरण समझाएं।
    2. वीर्य और प्रभाव में भेद (अंतर) को विस्तार से सोदाहरण स्पष्ट करें। शीत एवं उष्ण वीर्य के गुण, कर्म और महाभूत प्रधानता का वर्णन करें।
    3. Define Virya according to Charaka & Vagbhatta. Explain Dvivadha and Ashtavidha Virya in detail. Describe the dominance of Virya over Rasa and Vipaka with suitable examples.
    4. What is Prabhava? Differentiate between Virya and Prabhava with suitable examples.

    लघु उत्तरीय प्रश्न (5 Marks Questions)

    • वीर्य की परिभाषा एवं मुख्य भेद लिखें। (च.सू. २६/६५)
    • शीत और उष्ण वीर्य के गुण, कर्म, महाभूत प्रधानता और 2-2 उदाहरण दें।
    • अष्टविध वीर्य क्या हैं? उनके नाम लिखें।
    • वीर्य और प्रभाव में अंतर स्पष्ट करें।
    • वीर्य की प्रबलता (Dominance of Virya) पर टिप्पणी लिखें (आमलकी या मरिच का उदाहरण देकर)।
    • वीर्य निर्धारण (Virya Nirnaya) कैसे किया जाता है? संक्षेप में बताएं।
    • 'चिन्त्य' और 'अचिन्त्य' वीर्य से आप क्या समझते हैं? (वीर्य और प्रभाव)

    अति लघु उत्तरीय प्रश्न (2 Marks Questions)

    • वीर्य की परिभाषा लिखें। (येन कुर्वन्ति तद्वीर्यम्)
    • आचार्य चरक/सुश्रुत के अनुसार वीर्य के कितने भेद हैं? (दो - शीत और उष्ण)
    • अष्टविध वीर्य के नाम लिखें।
    • उष्ण वीर्य के दो कर्म बताएं। (दीपन, पाचन)
    • शीत वीर्य का एक उदाहरण दें। (चन्दन / शतावरी)
    • प्रभाव की परिभाषा दें। (द्रव्य की अचिन्त्य और विशिष्ट शक्ति)
    • दन्ती का प्रभाव क्या है? (विरेचन)
    • गोघृत का प्रभाव क्या है? (अग्नि दीपन)
    • वीर्य किससे अधिक बलवान होता है? (रस और विपाक से)
    • आमलकी का वीर्य क्या है? (शीत)
    • मरिच का वीर्य क्या है? (उष्ण)

    About the Author: Sparsh Varshney

    Sparsh Varshney is a BAMS (Bachelor of Ayurvedic Medicine and Surgery) student and the founder of AmidhaAyurveda.com. His mission is to share the deep and timeless wisdom of Ayurveda in an accessible and practical way, empowering people to reclaim their health naturally.

    Disclaimer: This article is for educational purposes only, intended for BAMS students. This information is based on Ayurvedic Samhitas and textbooks. For any medical advice or treatment, always consult a qualified Ayurvedic practitioner.

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